3) मैं किताब हूँ
3)
सुनो !
मुझे छोड़ कर
कहाँ जा रहे हो ?
तुम बिन
मेरा अस्तित्व नहीं ,
एक-एक शब्द
जुड़कर पंक्तियां बनकर
मुझ पर छा जाते हो
और मुझे एक
पहचान दे देते हो ।
अब मुझसे
मुँह मोड़ रहे हो,
और इंटरनेट की ओर
जा रहे हो।
मैं आज भी तुमसे
वैसे ही प्रेम करती हूँ।
मगर तुम
बदलते जा रहे हो ।
सोचो मैं न होती
तो तुम्हारा क्या होता ?
स्वरों से निकल
कानों तक जाते
फिर जाने कहाँ
गुम हो जाते
मैंने दिल में जगह दी,
तुम्हें सहेजकर रखा है
और तुम हो
कि मुझे ही
ठुकरा रहे हो,
लौट आओ
मैं तो आज भी तुम्हारी हूँ,
कल भी तुम्हारी रहूंगी,
क्योंकि मैं किताब हूँ
और तुम शब्द हो,
मैं बेजान होकर भी
इतनी समझ रखती हूँ
और तुम ज्ञान होकर भी
अज्ञान बनते हो ।
–पूनम झा ‘प्रथमा’
जयपुर, राजस्थान
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