मैं और तुम
हम कुछ बिना सोचे समझे से हैं
तय किये बिना ही मिले से हैं
मैं और तुम दो कंधों से हैं
रोते हुए एक दूसरे को चुप कराने के लिए
कभी आराम करने को, कभी सुलाने के लिए
मैं और तुम धुंधले चित्र हैं
कुछ बताते नहीं, पर सब कुछ जताते हुए
यादें समेटे हुए हम, हंसाते रुलाते हुए
मैं और तुम जलती मोमबत्तियां हैं
जिनकी रोशनी में परछाइयां नाचती दिखती हैं
रोशन होते आशियाँ, नज़दीकियां बढ़ती दिखती हैं
तुम ही मेरे ‘अंत’ और तुम ही ‘आरम्भ’ हो
तुम मेरे ‘कभी नहीं’ और तुम ही ‘हमेशा’ हो
–प्रतीक