मैं एक नदी सी
हाँ मैं एक नदी सी हूँ,जो बहती जा रही है निरंतर।
बिना थके,बिना रुके,
साथ अपने लिए कई ख्वाब,कई सवाल,कई भाव
हर घाट पर, हर पाट पर,
ढूंढ़ती हूँ इन सवालों के जबाब,
सोचती हूँ कहीं तो आकर रुकूँगी,
कहीं तो किनारा होगा।
जहाँ ठहर सकूँ इन भावों को लिए,
एक भाव जो ममता का पर्याय है,
समाया हुआ है जो रक्त की हर बूँद में।
जो कभी थकता नहीं है,रुकता नही है,
बस हिलोरे मारता रहता है लहरों की तरह।
जो भिगोना चाहता है मेरे मन के उस किनारे को,
जहाँ पर वो ठहर सके।
लूटा सके अपनी ममता,अपना स्नेह उस किनारे पर।
पर ऐसा होना कहाँ संभव है
क्योंकि नदी न कभी रुकी है,न कभी थकी है
पर हाँ अपने प्रेम और ममता रूपी जल से,
करती आई है पावन सभी को
मेरी दशा भी कुछ ऐसी ही है,
जो ढूंढ़ रही है वो किनारा जो,
जो मेरे आँचल में समा जाये,
और शांत कर दे,उन हिलोरों को,
पीकर जल मेरा।
और रोक दे मेरे बहाव को।
हाँ,क्यूंकि बनना चाहती हूँ मैं माँ।