मैं आदमी हूँ ख़ास
मैं आदमी हूँ खास
रोजाना सुबह से शाम तक
निकालता हूँ बाल की खाल
फिर बुनता हूँ मकड़जाल
कोई फसे क़ामयाब हो चाल |
जागने से सोने तक
साथ रखता हूँ छुरी
करता हूँ गंदे काम
कहता हुआ राम राम
पर निकलता है मरा मरा |
न्याय के मंदिर में
चुनाव के समंदर में
स्वयं को हंस कहूँ
एक टांग पर खड़ा
जीतता जिताता रहूँ |
मैं आदमी हूँ खास
साम दाम दण्ड भेद से
जोड़ कर जुगाड़
ला देता हूँ
ऊंट के नीचे पहाड़ |