*मैंने न कवि बनना चाहा है ।*
मैंने ना कवि बनना चाहा है ।
मैंने ना रवि बनना चाहता है।।
मैंने तो वस सिते हुए उन
अपने मग में बुदबुद जैसे
श्वांसों के तारों में अबतक
उपहासों की चिरकालिमा के
आँखों में भर भर कर पानी
जाग जाग कर सारी राते
विन बदले वे करवट अपनी
गतिहीनी अनगिन शब्दों को
साहित्य कला की माला में
पिरो पिरो अतुकी छंदों को
थोड़ी सी लय गति देना चाहा है ।।
मैंने ना——————————-।1।
मैनें तो वस वह पैनी दृष्टि
उन सामाजिक उन पौराणिक
कुछ बनावटी कुछ सत्यापित सी
गाथाओं व् प्रगाथाओं को
कुप्रथ सी चलती राहों को
उन लकीरों पर ढोते युग को
जान बूझकर उनकी ली में
दौड़े जाते भेड़िया धंसान ज्यों
पर उनके हानि के आसव को
ज्ञान बोध थैली से वंचित करने
हाँ आधुनिकी में बदलन हेतु
नाना विधियों प्रविधियों को
मात्र समझना ही चाहा है ।
मैंने ना ————————-।2।
तुझको युग बदलन के हेतु
जो पड़े शीत औ गरम् रेत मे
बहती धारा के सरिती तट पर
त्रिवेणी के स्वरों को गाते
नँगे भूखे कंकालों में छिप
सूरज की प्रचंड धुप में
आंधी झंझा व् तीव्र ठंड में
ईश भक्ति के पक्के भक्तों को
आहा के गीतों को वहलाते
मानों कर सर्वस्व निछावर
बिछाए मात्र फ़टी चदरिया
गंगे मैया के स्वरों में लीन
दिनों के सजल नयन नीर को
केवल बतलाना ही चाहा है ।
मैनें ना—————————-।3।
मेने तो वस और वहीं पर
लिए जगत की उलटी रीती
पलटी मारे बैठे पंडित
राम राम की रटना गाकर
ढोंगी ढंगी जाल बिछाके
कैसा टिका कैसा चन्दन
दबाये वस्त्र में पुस्तक पोथी
गंगा जी के जय घोसों में
मुंद मांदकर दोनों आँखे
बजा बजाकर छुद्र घन्टिका
रँगे बस्त्र के भीतर नँगे
बाबाओं की करतूतों को
बाहर पट पर लाना चाहा है ।
मैंने ना —————————।4।
और उस ओर पड़ी है दृष्टि मेरी
जो दिन रात विसवास जमाते
पर पीछे घोटाल घड़ी का
चूस चूस कर लहु विटामिन
दीखते हैं तनमन से भारी
कर कर के करतूत घिनौनी
आते हैं साधुं जनों के बीच
कर कर केअभिवादन जन का
लूट रहे हैं बाहो -बांही
वो क्या जाने दर्द किसी का
रख तकिया को आगे पीछे
दिन रात फेरते हाथ तोदपर
ताजे दिखते पान चवाते
राम नाम का तन पर पल्लू
पीक मारते दीवारों पर
ऐसे महाजनों की गाथा को
बतलाना ही तो चाहा है
मैंने ना ————————।5।