मैंने अपनी क्यों नहीं सुनी
स्वप्न कांच की भांति टूट जाते हैं ,
इच्छाएं रेत की भांति बिखर जाते हैं ,
एक लम्बा सफ़र बिना किसी आराम
तय होता रहता है ,
कभी इसकी सुनने तो कभी उसकी सुनने में ही
मन खो जाता है ,
अंत में हिस्से में बस राख या मिट्टी ही आती है,
और एक अफ़सोस आता है हिस्से में
इसकी उसकी तो बहुत सुनी
आखिर मैंने अपनी क्यों नहीं सुनी ?
द्वारा – नेहा ‘आज़ाद’