मेहमान की आओ भगत ।
भूले भटकते इस कलयुग में,
वर्षों बाद कोई आया मेहमान,
याद दिलाने अपने कर्तव्यो को,
खो रहा है व्यस्त क्षण भंगुर इंसान।
सेवा करना संस्कार अपना ,
स्वार्थ में सारे खो रहे है,
बोझ समझना खर्चा पानी,
रत्ती भर हृदय प्रेम में करते बेईमानी।
रिश्ते-नाते परिचित जन का आना,
अथिति बन कर दर्शन भी देना,
गले से निवला नहीं उतर रहा है,
आंँखे बिछाये कर रहे जाने का इंतजार।
आदर सत्कार विचार ही बन गया,
मेहमानों का आना शादी तक रह गया,
कौन खुशी से आखिर आशीर्वाद दे जाए,
महफ़िल में साज काज सब देखने को रह गये।
उम्मीद उमंगे भर कर जो आया था,
नीरस होता हाल बेहाल देख सदी का,
मेहमान अब रह गये इस वसुंधरा के,
प्रेम सम्मान और पोषण किया इंसान का।
रचनाकार-
बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।