मेहनत
मेहनत
थी वह अपनी ही धुन में मगन
लगी थी उसमें कुछ ऐसी लगन
परवाह न थी उसे जेठ की तपन
सर पर बोझ लिये वो चंचल चितवन
यौवन बिन श्रृंगार गज़ब विधाता की गढ़न
माथे पर छलकत श्रम की बूंदन
वह मेहनतकश सुघड़सुडौल बदन
भरीधूप में चमकी यूं जैसे कुंदन
लगी जैसे कोई अप्सरा का हुआ दर्शन
सर पर भार संग इक और जीवन
सर पर बोझ और पेट की अगन
तक रहे थे उस यौवना को मेरे नयन
आकर्षित हो पायल बजी जब छनछनन
मुग्ध हुये सुन चूड़ी की खनखनन
मेहनत कर पायी मेहनत का वहधन
मैं अचरज़ से उसे देख रही
श्रम के गहनों से वह सजी रही
अपनी ही धुन में रमी रही
मानों कोई स्वर्ग की अप्सरा हो
बस श्रम की बूंदें ही गहना हो
उस रूप वती के वशीभूत मैं
मौन खड़ी बस ताक रही
मुझको तकता देख कर वो
मेरे भीतर भी झांक रही
टूटी तंद्रा जब सुना कुछ शब्द
बनी रहैं हे मेम साहब ,का”
कल भी हमकाआना है”
यह ईंटन तो अभी बाकी हैं
क्या कल फिर इन्हें उठाना
है”
लाचार नहीं न मजबूर थी वो
मेहनत के माथे का गुरूर थी वो
देख मुझमें भी आया गुरूर
बढ़ी”नारी अबला नहीं सबला
की ओर ”
पारिश्रमिक पाकर वह प्रसन्न हुई
कुछ ज्यादा धन देकर मैं भी धन्य हुई
नमन है नारी की चेतना को पर्वत भी लांघ सकती है वो
अवसर जब ममता का आता
बन मोम सी वहां पिघलती है वो
डा.कुमुद श्रीवास्तव वर्मा कुमुदिनी