मेवाडी पगड़ी की गाथा
सुनी सुनाई बात है, आज तुमे सुनाने लाया हुँ
मेवाडी पगड़ी की गाथा, तुमे दिखाने आया हुँ
मैनार् गाव मेवाड बसे, मैनारियों की रण नीति बतलाता हुँ
सुनी सुनाई गाथा है, आज ये गौरव गाथा सुनता हूँ
मेवाडी माटी पर जब, गोर अँधेरा छाया था
मेवाडी शेरों से, मुगलो का टीडी दल टकराया था
हल्दी गाटी मे समर, चेतक ने खूब नचाया था
गायल हुए राणा को, नाला कुद पार पहुचाया था
मुगलो ने आतंक तब मेवाड मे खुब मचाया था
गायल शेर के पीछे, जंगली बाजो को लगाया था
आतंक देख मुगलो का, तब कोई पास नहीं आया था
गायल् शेर ने बाजो को, जंगल जंगल गुमाया था
तब मेवाडी पगड़ी का मान, मैनार् ने बचाया था
गायल् राणा को मैनारियो, ने मुगलो से छिपाया था
जयचंन्दो ने राणा की पहचान, अकबर को बतलाई थी
अकबर की सेना मैनारियो से, मैनार् मे राणा को लेने आई थी
सौगंध है महाकाल की, एकलिंग के दीवान को आच नही आपाये
आये जो मुगली सेना मैनार्, तो एक भी मुगल जिन्दा न जाने पाये
स्वाभिमान है राणा, अभिमान है राणा, मेवाडी पगड़ी शान है राणा
एक भी मुगल महाराणा को हाथ जो लगा पाये तो जिन्दा नहीं जाये
रण के बादल छाये, गाँव बीच सभा लगाई तब रण नीति बनाई
बच्चे, बुढे, महिला सभी को, युद्ध लड़ने की नई कला बतलाई
होली के ढोलो के डंकों से, सभी को एक साथ साथ चलाजाए
समल कर भेद हमारा न खुल याजे, जिन्दा मुगल एक न बच पाए
मुगली शाही सेना को दावत है, एक घर एक सैनिक का अभिनंदन है
प्रथम ढोल के डंकों पर भोजन, एक साथ साथ थाल लगाई गई
दूसरे ढोल के डंकों पर भोजन, एक साथ साथ थाल हटाई गई
तीसरे ढोल के डंकों पर सैनिक कि, एक साथ गर्दन चटकाई गई
पूरी मुगली शाही सेना मे, एक भी जिन्दा नहीं बच पाया था
फिर कभी मेवाड धरा पर, मुगलो ने अपना कदम नहीं उठाया था
मेवाडी पगड़ी की शान, मैनार् में अपने रण कोशल से सजाया था
महाराणा तब से मैनार् को, स्वतन्त्र रूप में बिना कर अपनाया था
अनिल चौबिसा