मेरे घर का कुआँ
हमारे घर के पिछले हिस्से में एक छोटा सा कुआँ था। चूंकि उसका पानी मीठा नहीं था, इसलिए हम उसके जल को पीने में तो इस्तेमाल नहीं करते थे,
पर घर की बाकी जलीय जरुरतों को पूरा करने
के लिए वो हर तरह से उपयुक्त था।
उससे पानी खीँचने के लिए चरखी तो अभी हाल के वर्षो में लगी,
इसके पहले उसके ऊपर लकड़ी की मोटी तख्ती रहती थी जिसपे पांव रख कर पानी निकाला जाता था।
कुँए के बगल में पत्थर की बनी दो आयातकार शिलाएं रखी थी जिस पर बैठ कर घर के मर्द और बच्चे नहाते थे।
महिलाओं के लिए कुँए से बिल्कुल करीब बना एक चार दीवारों से घिरा , पर उपर से खुला नहानघर( स्नानागार ) था,जिसकी जल की आपूर्ति उसकी दीवार पर बने चौकोर सुराख से होती थी। ये सुराख कुँए की ओर मुँह निकाल कर एक अर्ध वृत्ताकार सी शक्ल में था और अंदर की ओर बने हौद में खुलता था।
दोपहर के समय जब वहाँ सन्नाटा होता था, तो हम बच्चे इसी सुराख को पायदान बनाकर नहानघर की दीवार पर चढ़ कर जामुन और पपीते के पेड़ पर शिकारी की तरह आँख लगाए रहते थे कि कौन सा फल कब पकने वाला है।
कुआँ ज्यादा गहरा तो नहीं था पर हमारी जरूरतों के लिए काफी था।
बारिश के दिनों में इसका पानी तो इतना ऊपर आ जाता था कि हाथ से बाल्टी डालकर ही पानी निकल आता था और साथ में बाल्टी मे तैरते छोटे छोटे मेंढ़क भी, जिसे हम फिर कुएँ में डाल देते थे।
कुएँ के अंदर की दीवारों पर हरी मखमली सी एक काई की परत जमी होती थी और कुछ जगहों पर नन्हीं नन्हीं घाँस।
कभी कभी रस्सी ढीली बंधी होने से बाल्टियां कुँए के अंदर गिर जाती थी, उन्हें फिर गुच्छे रूपी नुकीले लोहे के कांटे की सहायता से निकाला जाता था।
परेशानी तब होती थी जब गलती से कुएँ में नहाते वक्त साबुन गिर जाया करती थी।
उस समय आनन फानन में, कुएँ में उतर कर साबुन ढ़ंढने वाले एक दो माहिरों को खोज कर लाया जाता था। वो लंबी समय तक डुबकी लगाकर सांस रोकने में सक्षम थे।
ये काम, ये लोग शौकिया और अपनी इस कला को निखारने के लिए किया करते थे। इन लोगो की गांव में एक अलग ही इज्जत थी, इस साहसिक कृत्य को अंजाम देने के लिए।
आज ये सोच कर भी आश्चर्य होता है कि कोई इतना बड़ा जोखिम कैसे ले सकता है वो भी एक महज साबुन निकालने के लिए?
माँ और ताईजी का चेहरा, सुबह सुबह नहाकर पूजा के बर्तनों को धोकर फिर एक छोटी सी बाल्टी में जल डालकर कुऍं के पास तुलसी को सींचता हुआ,अब भी मन के किसी कोने में छिपा बैठा है।
बड़े भाइयों के साथ मिलकर एक दूसरे को बारी बारी से बाल्टियों से पानी डाल कर नहलाना दृष्टिपटल पर एक दम साफ दिखाई दे जाता है, कि जैसे कल की बात हो।
गर्मियों के दिनों में कुँए का जल न्यूनतम स्तर पर पहुँचने पर इसकी तह तोड़कर , सालाना सफाई की जाती थी।
मजदूरों को रस्सी के सहारे कुएँ में उतारा जाता था, साल भर में गिरी हुई धूल ,मिट्टी, आस पास के पेड़ों से गिरे पत्तों का अवशेष और न जाने क्या क्या निकलता था।
पर हम बच्चे , कुएँ से निकले उस कीचड़ में अपने जीते हुए कांच के कंचे और चंद जंग लगे सिक्कों की तलाश में कई दिनों तक जुटे रहते थे , जिसे घर के बड़े , हम बच्चों को सबक सिखाने के लिए फेंक दिया करते थे।
ये कुआँ, तरफदारी करने वाले बुजुर्गों की तरह, हमारी इन चीज़ों को हिफाज़त से लौटा कर यही कहता था कि अगले साल फिर तुम्हारी इन डाली गयी शरारतों को इसी तरह लौटा दूंगा !!!
हम बच्चे इसी आश्वासन के भरोसे ही साल भर बेफ़िक्र होकर शैतानियों में जुटे रहते थे।
इसके ठंडे पानी की सिहरन और सुकून दोनों आज लिखते हुए कुछ पल के लिए फिर लौट आये हैं