मेरे गाँव की माटी में
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मेरे गाँव की माटी में है गंध नही अब सोंधी वह।
पहले जैसी वर्षा लेकर अब नहीं आता आंधी यह।
अब नहीं मचता खेतों में है मेला रोपा-रोपी का।
अब नहीं खलिहानों में गोबर से होता लीपा-पोती या।
अब भी जाड़ा किन्तु,ठिठुरता चीथड़े-चीथड़े कम्बल में।
अब भी जाता है दिख आंसू लोगों के हर सम्बल में।
वक्त बहुत है शोर मचाता मैं तो आधुनिक हो आया।
पर,नेताओं के वक्तव्यों पर अपना सब यह खो आया।
अब भी पोखर, नदी-नाले से पीते पानी गाँव के लोग।
अब तो नेता की फितरत ले होते युवा हैं गाँव के लोग।
टोले तौल रहे टोलों को राजनीति के बाटों से।(बाट=तौलने का पैमाना)
भाईचारा शब्द रह गया चुभते चुभाते गाँठों से।
कच्ची सडकें हो गयी पक्की मन पक्का से कच्चा पर।
माटी बदल कंक्रीट बन गया खो गया किन्तु मेरा घर।
मैं तुम सब मिलकर अब अर्थनीति पर पकड़ बनाते भारी।
महाजनी शोषण से लड़ने उद्धत गलियाँ, तोड़ रहे हैं यारी।
सत्तर वर्ष का बड़ा समय है बीता,बरगद तथा बहुत फैला।
शासन सत्ता दोनों बदले,लिए गाँव के मन किन्तु, है मैला।
नग्न बदन तब भी था अब है नंगे पांव सफर भी सारे।
श्रम ही मेरे पास बिकाऊ कुछ नहीं और हमारे।
पानी बरसे मन कुछ हरषे कल से आज जुदा कुछ है ना।
माटी सम्बल माटी का फल किस्मत खोले या फिर रैना-रैना।
बड़ा दर्द है गाँव-गाँव में अब भी तरस के करकस।
चुभा-चुभा जाता है हर दिन हम क्यों कूड़ा करकट ।
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