मेरे गाँव की मकर संक्रांति
मकर संक्रांति का यह पावन पर्व बचपन की मीठी यादों से बंधा हुआ है।
पौराणिक व धार्मिक मान्यता तो यह है कि, इसी दिन सूर्य धनु राशि से निकल कर मकर राशि में प्रवेश करता है।
14 जनवरी के बाद सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर होता है ,
इसलिए इसे उत्तरायण पर्व भी कहते हैं।
वैदिक पंचांग, वैसे तो चंद्रमा की गति पर ही आधारित होते हैं,
मकर संक्रांति ही एक मात्र ऐसा पर्व है, जो सूर्य की गति से निर्धारित होता है।
ये मान्यता भी है कि, आज ही के दिन माँ गंगा भागीरथ जी के पीछे पीछे चलते, कपिल मुनि के आश्रम से होते हुए सागर में प्रवेश करती हैं।
ये तो हो गयी ज्ञान की बातें????
अब आते हैं असली मुद्दे पर,
अपनी संक्रांति और मेरे गाँव बलरामपुर के टुशु परब की तरफ!!!
मुहल्ले में रहने वाले कामगारों, रिक्शेवालों व मजदूरों का ये मुख्य पर्व था,
पतले कागज से बनी रंग बिरंगी टुशु और मिट्टी की खुशबू लिए हमारे मानभूम की भाषा के वो कर्णप्रिय लोकगीत व अल्हड़ नृत्यों से धीरे धीरे,तब्दील होती माहौल की मदमस्ती, आज भी स्मृति पटल पर अंकित है।
हमारे लिए तो संक्रांति का मतलब काले ,सफेद तिल के लड्डु, रेवड़ी और घेवर हुआ करती थी।
दादी, ताईजी और माँ ,काले तिल के लड्डुओं को बनाते वक़्त, उनमें दो, तीन या पाँच पैसे डाल दिया करती थी।
शायद इसीलिए, ये काले तिल के लड्डु, हम बच्चों को ज्यादा प्रिय थे।
सफेद लड्डुओं से यकीनन, इसी कारणवश सदा कम लगाव रहा।
पड़ोस की काकी माँ के हाथ के बने पीठे, नारियल के छोटे छोटे लड्डुओं की महक और स्वाद,आज तक मन के किसी कोने में बैठे हुए हैं।
साथ ही, उस दिन कंचो और पैसों का जुआ, हर गली और मुहल्ले में बड़ी तन्मयता से खेला जाता था।
खलाई चंडी के मेले में, गाँव की अंकुरित यौवनाओं का दलबद्ध होकर नाचना गाना, पूरे वातावरण में
गूँजने लगता था।
टुशु को हाथों में उठाये नाचते गाते गाँव के लोग, गली- चौराहों में चारों ओर दिखते थे ।
शाम के वक़्त, टुशु को जलसमाधि देकर लौटती, गमगीन भीड़ के आँसू ,पलकों पर ठिठके पड़े मिलते थे।
इसलिए भी कि, उनके जीवन में आनंद के, ये गिने चुने ही तो दिन थे, जो अब एक साल के लंबे अंतराल के बाद ही लौटेंगे।
अगले दिन, फिर उसी तरह गरीबी व भुखमरी की त्रासदी से एक साल और लड़ना है।
किसी ने एक बार जब ये कहा कि,
बंगाल में मार्क्सवादी सरकार आने के बाद गरीबों का भला हुआ है,
तो इसके जवाब में मझले भाई ने ये कहा,
रिक्शेवाला विनोद दस साल पहले भी फटी गंजी पहनता था और आज भी!!
और,
इन सब बातों से बेपरवाह, बेखबर,
विनोद और सूरा एक दूसरे को गलबहियाँ डाले हुए, लड़खड़ाते हुए, ये गीत गा रहे थे
“आमार जोइदा जाबार मोन छिलो,
टिकिट बाबू टिकिट नाइ दिलो”
इनको न सरकार से शिकायत थी, न ही गरीबी से कोई शिकवा,
बस इस टिकिट बाबू को इनके साथ ये ज्यादती नहीं करनी चाहिए थी!!!?????