मेरे गाँव का अश्वमेध!
शीर्षक – मेरे गाँव का अश्वमेध
विधा – व्यंग्य काव्य
संक्षिप्त परिचय- ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो.रघुनाथगढ़, सीकर राजस्थान 332027
मो. 9001321438
गाँव सें इंसान गायब, मर गई है आत्मा
बस! आबाद हैं गाँव पुराने-नये अहेरी से
दो दल अहेरी,एक जवान एक बूढ़ा
नोचते निरीह प्राणियों को भरी दोपहर
पुराना अहेरी दल आदमखोर
नया अहेरी दल हिंसक पर बिखरा हुआ
इंसान शहर चले गये
पंछी गान गाते स्वागत करते दल का
कुछ पंछी चुप है अहेरी जाल से निकल।
आज मरी पड़ी संवेदना के सौदागर
खूब खिलखिला नाड़े की गाँठ खोल
तुच्छ स्वार्थसिद्धि हेतु अश्वमेध …..!
घोड़े की बजाय बकरी को खोलते
साम्राज्य विस्तार हेतु,पर बकरी ….
पर आँख किसी कसाई की नहीं !
खूँटे की आँखें फोड़ अहेरी डाल काजल।
मरी लाश के जिंदा सौदागर टपके आँसू
मायूस शमशान तक,बैठ कुछ देर
भोली सूरत गहन चितंन, भीड़भाड़
फालतू लोग मोहित,भाव समर्पित स्वाहा
दूर बैठ गौर करते,मेरे वोट कहाँ
बीजेपी कहाँ,काँग्रेस वाले …..।
इस तरह संवेदना देने नहीं
वोट हथियाने जाते अहेरी
अहेरी संग पुलिस का खेला
जाल समेटे हर वक्त जेब में
खोल देते दाना डाल,पंछी बेचारे….!
ऐसे! मेरे गाँव में अब इंसान गायब
बीजेपी-काँग्रेस का फैलाव-फुलाव
शेष है अब दो जाति,दो समाज
एक बीजेपी एक काँग्रेस
तीसरे को तीतर-बीतर करेंगे
रोज अश्वमेध में नरबलि
अब घोड़ा नहीं, बकरी नहीं
साम्राज्य विस्तार हेतु खोलेंगे
विरोधी-समर्थक के घर की इज्जत।