मेरी लेखनी
न मैं कविता लिखती हूँ।
न लिखती हूँ मैं काव्य।
मै लिखती जन-जन का आँसू ,
मैं लिखती प्रकृति का दर्द।
किसी को अच्छा लगे न लगे
मैं हमेशा चोट करती रहूँगी।
मै इन सब के दर्द का बयान
अपनी लेखनी से करती रहूँगी।
मैं कुएँ की रस्सी की भाँति
बार – बार घिसती रहूँगी।
न ज्यादा तो थोड़ा भी
मैं निशान आप सब पर
छोड़ती रहूँगी।
मैं समाज के दर्द को ,
मैं प्रकृति के के दर्द को,
आप तक लाती रहूँगी ,
मेरा मुझसे वादा है,
न ज्यादा तो थोड़ा भी ,
मैं इस दर्द को मिटाती रहूंगी।
– अनामिका