मेरी मोहब्बत का चाँद
मेरा चाँद अमावस को भी निकल आता है,
मैं आवाज देता हूँ और वो छत पर चला आता है।।
दिन के उजाले में भी मुझे खिड़कियों से नजर आता है
बस एक नजर मिलाने मेरी गली से तीन-चार बार ऐसे ही गुजर जाता है।।
वो ईद का चांद है जो एक तारे की ही चाहत रखता है,
आधा उजाला मुझे देता है और आधे में खुद सिमट जाता है।।
मेरा चाँद किसी भी दाग से बेदाग दिखता है,
पुर्णिमा के सिंगार में वो गंगा सा पाक साफ दिखता है।।
मजहबी लोगों ने मोहब्बत के दरमियान जमीन पर सरहदें खींच डाली है,
जिस्मों को सरहदों में छोड़, वो रूह से मिलने का वादा करता है।।
मोहब्बत को जिंदा रखने वो मस्जिद के झरोखों से मंदिर में सिजदा करता है,
वो एहसास है मोहब्बत का जो रात के अंधेरे में भी चमकता रहता है।।
prAstya..{प्रशांत सोलंकी}