मेरी मां
उठ जाती है रोज सवेरे भोर से पहले,
समेट कर खुद की ख्वाहिशें घर के काम के साथ,
चल देती है दो जून की रोटी के लिए ,
बिना जाने मंज़िल की ओर।
मिटाने क्षुब्धा परिवार की,
अपनी आंतो अंतड़ियों को सिकोड़ ,
अरमानों को मरोड़ न्योछावर कर देती ,
निशब्द होकर सह जाती तिरस्कार,
शाम को हारी थकी आती ,
मुस्कराकर समेटती मेरे सुनहरे सपनों की भोर।
वो मांझती है बर्तन,,धोती है कपड़े।
फर्श को कसकर रगड़ती है,
और देखती है परछाइयों में चेहरे की झुर्रियों को,
आंखों के काले घेरो को और फिर उन्नींदी आंखों में चमकते ख्वाब को।
बर्तनों की कालिख के साथ हताती जाती है मेरे भविष्य की कालिमा,
कपड़ों की चमक सा चमकाती है मेरा भविष्य।
अपनी दवाई की पिछली भूली बिसरी खुराक से चला लेती तत्काल काम ।
और बेवजह उठा लाई भूख , खून बढ़ाने के सीरप तमाम।
एक दिन में अनगिनत बार मेरा चेहरा देख लेती हैं,
बिना कहे दिल का हाल जान लेती है,
हर बार कमजोर लगने का राग अलाप के अनाब सनाब कुछ भी खिला देती है ।
रेखा मां की यही रीत तो उसे साधारण स्त्री से मा बना देती है।
वह सरे गमों की पोटली बनाकर चल देती है अपनी संतान से पहले।