मेरी भोली ”माँ”
कभी वो व्रत करती है, तो कभी अरदास गाती है।
मेरे खातिर न जाने वो, कितने तिकड़म भिड़ाती है।।
वो रह उपवास निर्जला, जीवित्पुत्रिका निभाती है।
मेरी भोली माँ मुझे अब भी, काला टीका लगाती है।।
वो उठती चौक कर रातों में, जो करवट बदलता था।
वो सुन लेती मेरी बातें, मैं जब बोला भी न करता था।।
मैं अब जो बोल नही पाता, वो वो भी जान जाती है।
मेरी भोली माँ मुझे अब भी, काला टीका लगाती है।।
कुलांचे मारता दिनभर , था माँ बेखौफ आंगन में।
रसोई में भी रहकर थी, तू करती रक्षा अँखियन से।।
मगर जब गिर पड़ता था , धरा पर खा कहीं ठोकर।
तो दें थपकारे भूमि पर , जगाती हौशला छण में।।
सुलभ मन जान न पाता, निर्विघ्न माँ तेरी ममता को।
करे क्यो रार मुझ खातिर, चुनौती दे हर क्षमता को।।
तेरी समता में तुझसे क्यों , सृष्टि फ़ीका बुझाती है।
मेरी भोली माँ मुझे अब भी, काला टीका लगाती है।।
करूँ व्याख्यान भी मैं क्या, मैं तो हूँ बस तेरा जाया।
नही ज्ञानी नही ध्यानी , न किसी विज्ञान की माया।।
परे है सोच से उन सबके, माँ के मातृत्व की गाथा।
त्रिदेवों ने भी अनुसुइया, माँ की महिमा को है गाया।।
सरस मन और सरल हृदय, तेरा अवतार अनूठा है।
तेरे बिन विश्व क्या ब्रह्मांड का, रचना भी झूठा है।।
तेरा तो रूप माँ देवतुल्य, जगत गुण जिसका गाती है।
मेरी भोली माँ मुझे अब भी, काला टीका लगाती है।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ११/११/२०१८)