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2 Dec 2022 · 42 min read

मेरी बनारस यात्रा

मेरी बनारस यात्रा
(यात्रा वृतांत)

-विनोद सिल्ला

समर्पण
फाह्यान, ह्वेनसांग व इत्सिंग चाइनीज यात्रियों को समर्पित जिन्होंने श्रमण भारत के स्वर्णिम इतिहास के अनछुए पहलु कलमबद्ध किए।

लेखकीय

दुनिया का हर प्राणी यात्री है। जन्म लेने के साथ ही सबकी यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। यह यात्रा मृत्यु पर्यंत जारी रहती है। धर्म, धार्मिक लोग व धार्मिक ग्रंथ तो जीवन के बाद भी यात्रा का जिक्र करते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि मृत्यु के बाद कोई यात्रा शेष नहीं रह जाती। मृत्यु उपरान्त के सभी धर्मों ने अपने-अपने रीति-रिवाज तय कर रखे हैं। उन्हीं रीति-रिवाजों के अनुसार अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। जब अंतिम संस्कार कर दिया गया। तब शेष क्या रह जाता है? अंतिम संस्कार का मतलब ही यह है कि अब कोई संस्कार शेष नहीं रहा।
मैंने अपने जीवन में अनेक यात्राएं की हैं। उन यात्राओं के अनुभवों पर धीरे-धीरे समय की धूल जमने लगी। यादें धुंधली पड़ने लगी। इस बार की यात्रा को कलमबद्ध करने का विचार बना। इस यात्रा-वृतांत में 21 प्रकरण हैं। या यूं कहिए कि 21पड़ाव हैं। इन 21 पड़ावों को पुस्तक में शामिल करने का प्रयास किया है। इस यात्रा की लगभग सभी महत्वपूर्ण घटनाएं कलमबद्ध करने का प्रयास किया है। इस यात्रा के खट्टे-मिट्ठे अनुभवों पर समय की धूल न जमने पाए। इस लिए यह यात्रा वृतांत कलमबद्ध किया है।
इस यात्रा-वृतांत के माध्यम से मैं अपनी बात कहने में कितना कामयाब रहा। आप को यह यात्रा वृतांत कैसा लगा? आप अपनी प्रतिक्रिया अवश्य ही जाहिर करें। निसंदेह आपकी प्रतिक्रिया मेरा राह-प्रशस्त करेगी।

विनोद सिल्ला

771/14, गीता कॉलोनी, नजदीक धर्मशाला
डांगरा रोड़, टोहाना
जिला फतेहाबाद (हरियाणा)
पिन कोड 125120
संपर्क 9728398500
vkshilla@gmail.com

1.
निमंत्रण-पत्र

मेरी रचनाएं देश भर के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। जब कोई विशेष रचना का सृजन होता है तो उसे सोशल मिडिया के सुपर्द भी कर देता हूँ। सोशल मिडिया के गगन में जहाँ-तहाँ हर संभव स्थान पर चिपका देता हूँ। जिसे पढ़कर कोई दिल खोल कर सराहना करता है। तो कोई जी भरकर भर्त्सना करते हैं। कोई सहज टिप्पणी करता है। कोई रचना की उपेक्षा करके पतली गली निकल लेता है। इसी प्रकार एक दिन सृजन के बाद एक रचना सोशल मिडिया के सुपर्द की।
मेरे मोबाइल फोन की घंटी घनघनाई। मैंने कॉल-रिसीव किया। आवाज से प्रतीत हुआ कि कोई वयोवृद्ध बोल रहे हैं। उन्होंने अपने परिचय में बताया कि वे मधेपुरा, बिहार से डॉ. महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ बोल रहे हैं। उन्होंने मेरी कविता की भरपूर सराहना की। उन्होंने इसे “जन आकांक्षा” के आगामी अंक में प्रकाशित करने की बात की। इसे मैंने सहजता से ही लिया। रचनाओं पर टिप्पणी और प्रकाशित करने का वादा करने वाले कॉल अक्सर आते रहते हैं। मैंने इनका फोन भी उसी क्रम में ले लिया। उसके बाद इन्होंने मेरी और भी कई अन्य रचनाओं का चयन किया। फिर एक दिन उन्होंने “जन आकांक्षा” के नवीन अंक की प्रति भेजने के लिए घर का पता मांगा, तो मैंने तपाक से दे दिया।
मुझे पंजीकृत डाक द्वारा “जन आकांक्षा” के नवीन अंक की लेखकीय प्रति मिली। जिसमें वो सभी रचनाएं प्रकाशित थीं, जिनका डॉ. महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ ने चयन किया था। पत्रिका की लेखकीय प्रति मिलना भी कोई खास महत्वपूर्ण बात नहीं है। जिन पत्रिकाओं में मेरी रचना प्रकाशित होती हैं, उनमें से बहुत सी पत्रिकाएं लेखकीय प्रति भेज देती हैं। कुछ सम्पादक लेखकीय प्रति के रूप में मात्र पत्रिका की पी. डी. एफ. फाइल भेज देते हैं। लेकिन “जन आकांक्षा” की प्रति के साथ एक निमंत्रण-पत्र भी आया था। जिसमें 06 और 07 नवंबर 2022 के आयोजन में शामिल होने के लिए निमंत्रण था। यह आयोजन ‘जन लेखक संघ द्वारा आयोजित किया जाना प्रस्तावित था। निमंत्रण-पत्र को पाकर मैंने कार्यक्रम में शामिल होने का मन बनाया।

2.
घुमक्कड़ स्वभाव

फिर एक दिन मेरे मोबाइल फोन की घंटी घनघना उठी। मैंने कॉल रिसीव किया। डॉ. महेन्द्र नारायण पंकज बोल रहे थे। उन्होंनें पूछा, “पत्रिका मिल गई है क्या?”
मैंने बताया कि मान्यवर पत्रिका मिल गई और साथ में आपका निमंत्रण-पत्र भी मिल गया। उनके पूछने पर मैंने कार्यक्रम में पहुँचने की अपनी स्वीकृति दी। निमंत्रण-पत्र के मुताबिक 06 और 07 नवंबर 2022 को एक साहित्यिक आयोजन, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (कांशी हिन्दू विश्वविद्यालय) में होना प्रस्तावित था। बी. एच. यू. के बारे में बहुत कुछ सुना व पढ़ा था। मेरी घुमक्कड़ प्रवृति, व संत शिरोमणी सतगुरु रविदास/सतगुरु कबीर की जन्म स्थली व बुद्ध की ज्ञान स्थली देखने की प्रबल इच्छा ने बनारस जाने का कार्यक्रम बनवा ही दिया। मैंने जन लेखक संघ के आयोजन में शामिल होने का दृढ़ निश्चय किया। मैंने अपनी जीवन संगिनी मीना रानी से पूछा तो उसने भी चलने की हामी भरी उनके अतिरिक्त ओर भी बहुत से साथियों से व लेखक मित्रों से चलने की बात की सबने चलने से मना कर दिया।
नरेश खोखर ने चलना स्वीकार किया। साथ में यह भी बताया कि खारा-खेड़ी निवासी शिक्षाविद महेन्द्र जी भी साथ चलेंगे। जो कि नरेश खोखर के बड़े भाई दिनेश खोखर के ससुर हैं। डॉ. महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ बार-बार फोन करके कार्यक्रम की याद दिलाते रहे तथा पूछते रहे कि हरियाणा से कितने लोग आएंगे? टिकट बुकिंग हो गई या नहीं? इत्यादि-इत्यादि। मेरा एक ही जवाब था कि हम चार लोग आएंगे। मैं बार-बार नरेश खोखर के साथ बात करके कार्यक्रम के बारे में विचार विमर्श करने का प्रयास करता रहा। हम यात्रा से संबंधित हवाई किले बनाते रहे, ढहाते रहे। ट्रेन कौन-सी उपयुक्त रहेगी? रेलवे की एप्प को खंगालते रहे। तो पाया कि टोहाना से सीधी बनारस के लिए कोई ट्रेन नहीं है। बनारस के लिए ट्रेन दिल्ली से ही लेनी होगी। ज्यों-ज्यों अक्तूबर महिना बीतता गया। आयोजन का समय नजदीक आता गया। मैंने नरेश खोखर से टिकट आरक्षित करवाने के बारे में बात की तो नरेश खोखर ने चलने में असमर्थता जाहिर की। उसने बताया कि 06 और 07 नवंबर 2022 को उनकी जीवन संगिनी सम्मानित विशाखा बौद्ध का सी ई टी का इग्जाम है। मैं डॉ. महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ को नोट करवा चुका था कि हरियाणा से चार लोग आएंगे। फिर मैंने बेटे अनमोल और बिटिया लाक्षा को तैयार किया। जिन्होंने बनारस जाने के कार्यक्रम पर अत्यधिक खुशी जाहिर की।

3.
टिकट बुकिंग व ट्रेन चयन

लाक्षा और अनमोल दोनों ही रेलवे की विभिन्न एप्पस पर ट्रेन देखने लगे। 30 अक्तूबर 2022 को मैं अपने सहकर्मी सुंदरसिंह रंगा को साथ लेकर रेलवे स्टेशन गया। जाकर दिल्ली से बनारस के लिए गाड़ी ‘संख्या 13484 फरका एक्सप्रेस’ में सीट आरक्षित करने के लिए आवेदन किया। रेलवेकर्मी ने बताया कि स्लीपर यान में एक सौ वेटिंग चल रही है। ‘ए सी 3’ में सीट है, कहते हो तो टिकट बनाऊं। मैंने स्वीकृति दी। उसने 04 नवम्बर 2022 को पुरानी दिल्ली से रात को 21:40 बजे चलने वाली फरका एक्सप्रेस की ‘ए सी 3′ की टिकट बना दी। सीट कन्फर्म नहीं थी। दस वेटिंग में थी। वापसी के लिए मैंने उपयुक्त ट्रेन जानना चाहा। तो उसने बताया कि 07 नवंबर 2022 को सांय 18:30 बजे “गाड़ी संख्या 01673 पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ है। मैंने ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ की स्वीकृति दे दी। वापसी की स्लीपर की रिजर्वेशन करवा ली लेकिन सीट कन्फर्म नहीं हुई। इसमें भी वेटिंग थी। टिकट लेकर निश्चिंत हुए। मैंने नरेश खोखर से पूछा सीट कन्फर्म का पता कैसे चलेगा? तो नरेश ने महत्वपूर्ण ज्ञान दिया। जिस ज्ञान का उपयोग मैं पूरे सफर में करता रहा। टिकट लेकर घर पहुंचा। मेरी जीवन संगिनी, बेटी और बेटे ने टिकटों को बार-बार जांचा। टिकटों का अवलोकन करके नियत स्थान पर रखना तय हुआ। ताकी समय पर ढूंढने के लिए कड़ी मशक्कत न करनी पड़े।

4.
बनारस जाने की तैयारी

सफर में जाने से पूर्व सफर की तैयारी को लेकर मेरी जीवन संगिनी सम्मानित मीना रानी बहुत असहज हो जाती हैं। तैयारी को लेकर अपने मन-मस्तिष्क की उधेड़-बुन उसे अत्यधिक विचलित कर देती है। वह बार-बार कहती है, कोई सफर में जरूरत का महत्वपूर्ण सामान छूट न जाए। मुझे याद दिलाओ कोई सामान ऐसा तो नहीं जिसे लेना भूल गए हों। उसकी परेशानी में मेरा यही मशविरा होता है कि कोई सामान छूट गया तो कोई बात नहीं। आगे खरीद लेंगे या सामान के बगैर काम चला लेंगे। लेकिन इनकी परेशानी ट्रेन में बैठने तक खत्म नहीं होती। 03 नवम्बर 2022 को सफर का सामान पैक करने के लिए स्कूल से छुट्टी ली। सारा दिन सामान पैक करने की कड़ी मशक्कत की। स्कूल की छुट्टी के बाद मैं और बेटी-बेटा घर पहुंचे तो हम तीनों से पूछा गया, आपकी कौन-कौन सी ड्रैस डालनी है। हमारे बताए अनुसार कपड़े पैक कर दिए गए। रास्ते में खाने के लिए दो किलोग्राम खीरे, दो किलोग्राम सेब व अमरूद डाल लिए। ठूंस-ठूंस कर तीन बैग भर लिए। 04 नवंबर 2022 को सुबह 07:30 बजे हम घर से निकले। बड़ा बैग हमेशा की तरह मैंने उठाया। छोटे दोनों बैग बेटी लाक्षा और बेटे अनमोल ने उठाए। कदम दर कदम बस-स्टैण्ड टोहना के समक्ष पहुंचे। जहाँ से ऑटो लेकर, पंजाब की सीमा से सटे टोहाना के रेलवे स्टेशन पर पहुंच गए। दिल्ली तक का टिकट लेकर प्लेटफार्म नंबर दो पर बैठ कर नई-दिल्ली जाने वाली गाड़ी संख्या ‘16032 अण्डमान एक्सप्रेस’ ट्रेन का इंतजार करने लगे। ट्रेन अपने निर्धारित समय पर ठीक 09:41 मिनट पर आई और हम ट्रेन में सवार होकर चल पड़े।

5.
26, अलीपुर रोड़

अण्डमान एक्सप्रेस से टोहाना से चलकर दोपहर के 13:00 बजे नई दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर पहुंचे। इससे पूर्व जीन्द से निकलने के बाद अमरूद खाए। बहादुरगढ़ पहुंचने पर ट्रेन में ही घर से लाई रोटियाँ, काले चनों की सूखी सब्जी व चटपटे हरि मिर्च व अदरक के अचार के साथ भरपेट भोजन खाया। नई-दिल्ली पहुंच कर मैट्रो में सवार हो कर ‘विधानसभा मैट्रो स्टेशन’ पर उतरे। दिल्ली विधानसभा के सामने 26, अलीपुर रोड़ स्थित उस स्मारक में पहुंचे जो बाबासाहब की याद में बनाया गया है। जिसकी देख-देख केंद्र सरकार के हाथ में है। 26, अलीपुर रोड़ स्थित जो बंगला था। इसी स्थान पर 05 और 06 दिसंबर 1956 की रात को बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अंतिम सांस लिया था। मैंने सपरिवार दिसंबर 2014 में उस बंगले को मूल रूप में अंतिम बार देखा था। सन् 2015 में केन्द्र सरकार ने उस बंगले को तुड़वा दिया। उसके स्थान पर भव्य स्मारक बना है। जिसे मैंने अनेक बार देखा है। लेकिन मेरी जीवन संगिनी ने और दोनों बच्चों ने इस स्मारक को नहीं देखा था। इसलिए आज सपरिवार स्मारक देखने गए। मैं और दोनों बच्चे बैग लादे हुए थे। डॉ. अम्बेडकर स्मारक में प्रवेश करते ही, मुख्य द्वार के बांई और सामान जमा करने की व्यवस्था थी। जहाँ पर तीनों बैग जमा करवा के राहत महसूस कर रहे थे। अब हम सभी स्मारक में प्रवेश करने को अधीर थे।
ज्यों ही हमने स्मारक में प्रवेश करना चाहा, गेट के बाहर खड़े गार्ड ने कहा कि अभी बाहर से देख लो, बाहर घूम लो। अंदर बिजली चली गई। बाहर घूम-फिर लो, फोटो निकाल लो, तब तक बिजली भी आ जाएगी। हम बाहर घूमे, फोटो वगैरह ले लिए। कैन्टीन में चले गए। वहाँ जलपान करके बाहर आ गए। अब फिर प्रवेश करने लगे तो, गार्ड का फिर वही रटा-रटाया संवाद था कि बिजली आती है तब तक बाहर घूम लो। हमने कहा कि भाई बाहर कितना घूमें? बिजली नहीं है तो जनरेटर या इनवर्टर का इंतजाम क्यों नहीं करते? गार्ड मेरी बात का जवाब नहीं दे पाया तो, एक सफारी सूट वाले बाबूनूमा व्यक्ति ने मोर्चा संभाला। वह कहने लगा कि सर बिजली तो है, तो खराबी है। जिसे मैकेनिक ठीक कर रहे हैं। ठीक होने में थोड़ा समय लगेगा। ठीक नहीं होती तब तक रोकना पड़ेगा। वैसे ही देखना है तो आप अभी जा सकते हैं। बाकी सब कुछ तो देख सकते हो, लेकिन एल ई डी शक्रीन नहीं चल रही। हमने विचार किया बिजली दुरुस्त होने में, जाने कितना समय लग जाए? जैसी भी स्थिति है, हमने उन्हीं में देखना उचित समझा। हम अंदर प्रवेश कर गए। मुझे आज अच्छा नहीं लग रहा था। क्योंकि बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जीवन संघर्ष का वर्णन करने वाले सभी शक्रीन पर चुप्पी साधे हुए थे। जो शक्रीन के पास से गुजरते समय मुझे उनकी चुप्पी कचोट रही थी। लेकिन बाकी परिवार को सब कुछ अच्छा लग रहा था। क्योंकि वे सब पहली बार आए थे। उनके लिए जो दिख रहा था, वही पर्याप्त था। मैं झल्लाया हुआ था। बुदबुदा रहा था कि बिजली खराब आज ही होनी थी क्या। जहाँ बाबा साहब की भाषण देती प्रतिमा है, हम उसके नजदीक गए। पहले जब भी प्रतिमा के पास जाते थे, तो बाबासाहब के भाषण की टेप चल पड़ती थी। बाबासाहब की प्रतिमा में मूवमेंट शुरु हो जाती थी। देखने वाला मानने की तैयार ही नहीं था कि यह यह प्रतिमा है। भाषण टेप किया हुआ है। यह सब विज्ञान का चमत्कार है। देखने वाले को लगता है कि वह 1956 से पहले के काल में प्रवेश कर गया। सामने खड़े बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर भाषण दे रहे हैं। मैंने ऐसा हर बार महसूस किया। परन्तु आज प्रतिमा मौन थी। मैंने यह सब परिवार को बताया कि आज सब कुछ सही होता तो आपको भी ऐसा अनुभव होता। मैं कुछ कमी महसूस कर रहा था। वे नहीं जो आज यहाँ पहली बार आए थे। हमने प्रत्येक विषय-वस्तु का अवलोकन किया। प्रतिमा के नजदीक ही स्मारक का मॉडल रखा था। जिसका हमने बड़े ध्यान से अवलोकन किया। कुछ सजीव पुतले खड़े थे। इन पुतलों के माध्यम से 26 नवंबर 1949 का बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा संविधान सभा को संविधान सौंपने का परिदृश्य था। वहाँ जाकर मेरी जीवन संगिनी सम्मानित मीना रानी ठिठक गई। मैंने पूछा क्या हुआ? उन्होंने हंसकर कहा कि प्रथम दृष्टि में लगा कि वास्तव में ये सब सामने खड़े हैं। फिर ध्यान आया ओ हो ये तो पुतले हैं। सभी ने एक-एक दृश्य का बड़ी रोचकता के साथ अवलोकन करके बहुत-सी स्मृतियां मन-मष्तिष्क में लेकर चले। उसके बाद विधानसभा मैट्रो स्टेशन से बैठ कर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर जा पहुंचे।

6.
लाल किला की यात्रा

26, अलीपुर रोड़ स्थित डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय स्मारक देखने के बाद लगभग 16:00 बजे, मैट्रो ट्रेन के माध्यम से पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंचे। यहीं से रात्रि के 21:40 बजे गाड़ी संख्या 13484 फरका एक्सप्रेस से बनारस रवाना होना है। समय हमारे पास बहुत था। हम सब ने परामर्श करके लाल किला देखने का मन बनाया। रेलवे-स्टेशन पर सामान जमा करवा के, ई-रिक्शा लेकर, जगह-जगह जाम व लाल-बत्ती का सामना करते हुए लाल किला पहुंचे। लाल किले में प्रवेश के लिए भारतीयों के लिए टिकट पचास रुपए प्रति व्यक्ति था। जबकी विदेशी पर्यटकों के लिए पाँच सौ रुपए प्रति व्यक्ति था। टिकट लेकर गहन जांच प्रक्रिया से गुजर कर, लाल किले में प्रवेश किया। मुख्य द्वार से प्रवेश किया, जहाँ दोनों तरफ बड़ा सुंदर और मन-मोहक बाजार सजा था। कोई इक्का-दुक्का ग्राहक सामान देख रहा था। तौल-मौल करके आगे बढ़ रहे थे। खरीद कोई नहीं रहा था। क्योंकि उनका रेट बहुत अधिक था। अधिक हो भी क्यों नहीं यहाँ दुकान का किराया भी बहुत महंगा है। हो भी क्यों नहीं केन्द्र सरकार ने लाल किले को डालमिया समूह को पांच साल के लिए 25 करोड़ रुपए में दे दिया है। डालमिया समूह ने इसे लाभ कमाने के लिए ही लिया है। व्यापारिक घराने सेवा भाव से कुछ नहीं करते, जो भी करते हैं। वह अपने वाणिज्यिक हित साधने के लिए ही करते हैं।
मैं लाल किला पहले भी देख चुका हूँ। मुख्य द्वार से आगे बढ़े दीवान-ए-आम देखा। जहाँ शैलानियों की अत्यधिक भीड़ थी। कुछ सपरिवार आए थे। बहुत से नवयुवक अपनी गर्लफ्रेंड्स के साथ आए हुए थे। बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक थे। बहुत से मुस्लिम परिवार भी आए हुए थे। सभी अपने अपने आज के दिन को महत्वपूर्ण बनाने की कोई कोर-कसर छोड़ना चाहते थे। इसके बाद दीवान-ए-खास देखा। पहले जबदेखा था तो दीवान-ए-खास की शान-औ-शोकत लाजवाब थी। लेकिन आज वैसा कुछ नहीं था। दीवान-ए-खास में सभी की आवाजाही बाधित कर रखी थी। दीवान-ए-खास के सामने के खाली स्थान में खुले आसमान के नीचे वृताकार बड़ा मंच तैयार था। साउंड सिस्टम लगा हुआ था। मंच के चारों ओर गोलाई में ही कुर्सियां लगीं थीं। दीवान-ए-खास के दांई ओर मोती मस्जिद के सामने बांस की सैंकड़ों छुड़ाया रखीं थी। जिनमें भगवां ध्वज करीने से चढ़ाए हुए थे। किसी निजी कम्पनी द्वारा तैनात गार्ड ने पूछने पर बताया कि रात को आयोजन होना है। जिसके लिए ये झंडे तैयार किए गए हैं। यह मंच सजाया है। ये कुर्सियाँ लगाई हैं। सूरज सुबह निकलने का वादा करके पश्चिम में जा छुपा। अंधेरा अपनी सत्ता के कमल खिलाता जा रहा था। बत्तियाँ जलने लगी थी। हमने भी मुगलिया सल्तनत के नायाब अवशेष लाल किले को अलविदा कहा।
लाल किले को अलविदा कह कर हमने अपना रुख चांदनी चौक की ओर किया।

7.
लाल किले से चलकर

लाल किले के ठीक सामने चांदनी चौक की ओर जाने के लिए रास्ता है। यह रास्ता बेहद भीड़-भाड़ वाला व्यस्त रास्ता था। जिसे फिलहाल ग्रिल लगाकर बंद किया हुआ है। ग्रिल के पास ही एक रेहड़ी पर अनानास काटकर डिस्पोजल कटोरियों बड़े आकर्षक ढंग से सजा रखा था। हमारे पैर रेहड़ी के पास रुक गए। मैंने पूछा फलाहार किया जाए। सभी ने सहमति दी। हमने अनानास खाया। जिससे थके-मांदे शरीर में पुन: ऊर्जा का संचार हो गया। उसके बाद हमने चांदनी चौक की तरफ रुख किया। मेरा मन था कि चांदनी-चौक तक पैदल मार्च किया जाए। बाजार की रंगत को देखा जाए। मेरी जीवन-संगिनी अत्यधिक थक चुकी थी। इसलिए ऑटो न मिलने पर रिक्शा लेकर चांदनी-चौक के लिए। लाल किले से चांदनी चौक तक का बाजार साफ-सुथरा था। यहाँ केवल धुंआ रहित वाहन ही दिखाई दे रहे थे। बाजार की चहल-पहल चरम पर थी। रात होने के कारण इस बाजार की चकाचौंध में भी चार-चांद लग गए थे। पूरा बाजार रंग-बिरंगी रौशनी से नहाया प्रतीत हो रहा था। कुछ मिनट में रिक्शा वाले ने हमें चांदनी-चौक पर पहुंचा दिया। अब हम रिक्शा से उतरना चाहते थे। लेकिन रिक्शा चालक हमें उतारना नहीं चाहता था। कहने लगा थोड़ा-बहुत बाजार और घुमा दूं साहब। मैंने मना कर दिया। हम रिक्शा से उतरे। उसे किराया दे रहे थे। तब भी उसने कहा कि सामने की दुकान में साड़ियां बहुत अच्छी हैं। मैंने ऊसे किराया देते हुए पूछा कि उस दुकान वाले से तेरा क्या तालुकात है? तेरा क्या इंटरेस्ट है जो उसके सामान की इतनी मार्केटिंग कर रहा है? उसने कहा, “कुछ नहीं बाबू जी आप जाने के बाद भी याद रखोगे। फिर कभी आओगे तब भी मुझे सेवा का मौका दोगे इसीलिए कह रहा हूँ।” मैंने कहा भाई जब-जब दिल्ली आए, हर बार अलग दिल्ली मिली। जब भी आओ न पुराने दिल्ली वाले मिलते, न वह दिल्ली मिलती है। हर बार दिल्ली में सबसे अधिक बदलाव मिलते हैं। चांदनी-चौक के ऐतिहासिक महत्व पर परिवार से चर्चा करते हुए चल पड़े। यह वही चांदनी-चौक है जिसे मुगलकाल में उर्दु बाजार कहा जाता था। इस चौक व बाजार को मुगल बादशाह शाहजहां की पुत्री जहांआरा ने डिजाइन किया था। यह वही स्थान है जहाँ पर गुरु तेगबहादुर ने शहीदी पाई थी।
चांदनी-चौक पर एक छोटी-सी मिठाई की दुकान है। जहाँ सिर्फ जलेबी-रबड़ी ही मिलती है। हमने दो-दो जलेबी खाई। उसके बाद चांदनी-चौक पर ही लाक्षा और अनमोल ने दो-दो परांठे खाए। तत्पश्चात चांदनी-चौक से पुरानी दिल्ली के रेलवे-स्टेशन तक पैदल यात्रा की। स्टेशन पर पहुंच कर सबसे पहले अपने जमा करवाए गए सामान को लिया। हमने 21:40 बजे फरका एक्सप्रेस 16 नंबर प्लेटफार्म से लेनी है। इसलिए 16 नंबर प्लेटफार्म पर जा पहुंचे। ट्रेन चलने में समय अभी भी बहुत था। वक्त गुजारने के लिए वेटिंग रूम में जंचकर बैठ गए।

8.
फरका एक्सप्रेस का इंतजार

रेल की सवारी शान की सवारी मानी जाती है। मैंने अकेले भी और सपरिवार भी अनेक यात्राएं की हैं। रेल से की गई यात्राओं में भले ही बढ़िया जलपान न मिला हो। शौचालय साफ न मिला हो।यात्राओं की चुनिन्दा परेशानियों को दरकिनार कर दिया जाए तो भी रेल की सवारी, वास्तव में शान की सवारी ही रही है। हमने आज तक की तमाम यात्राएं स्लीपर यान या जनरल वार्ड में ही की थी। लेकिन यह हमारी प्रथम यात्रा थी जो ‘ए सी3’ में तय की जानी है। गाड़ी संख्या 13484 फरका एक्सप्रेस 21:40 बजे अपने निर्धारित समय पर चलनी है। लेकिन हम लाल किला से पुरानी दिल्ली रेलवे-स्टेशन पर 19:00 बजे पहुंच गए। सबसे पहले तो हमने अपना जमा करवाया हुआ सामान वापस लिया। पूर्ववत फिर मैंने बड़े वाला बैग उठाया, दो पीठू बैग लाक्षा व अनमोल ने उठाए। एक नंबर प्लेटफार्म से स्वचालित सीढ़ियों से पुल पर चढ़े। सोलह नंबर प्लेटफार्म पर जा पहुंचे। सोलह नंबर प्लेटफार्म यात्रियों से खचाखच भरा था। मेरी जीवन संगिनी ने भीड़ से अलग कहीं उपयुक्त स्थान पर चलने के लिए कहा। मैंने कंधे से बैग उतारकर तीनों को प्लेटफार्म पर ही बैठाया तथा वेटिंग रूम का जायजा लेने चला गया। लेकिन सोलह नंबर प्लेटफार्म पर वेटिंग रूम के स्थान पर वेटिंग शेड था। वही उपयुक्त लगा। मैं वापस मुड़ा। सामान और बीवी बच्चों को भी वेटिंग शेड के नीचे ले आया। यहाँ भीड़-भाड़ नहीं थी। यहाँ कोई ट्रेन के इंतजार में बैठा था। कोई सुसता रहा था। कोई खाना खा रहा था। कोई आ रहा था। कोई जा रहा था। हमने भी खाली स्टील की कुर्सियों पर स्थान ग्रहण किया। Where is my train ऐप जो हमेशा रेल-यात्राओं के समय ट्रेन का शेड्यूल बताने में बहुत उपयोगी रही है। हमें यह इसी एप ने बताया कि फरका एक्सप्रेस सोलह नंबर प्लेटफार्म से जाएगी। मैं बैठा-बैठा बोर हो रहा था, तो चहल-कदमी करता हुआ सोलह नंबर प्लेटफार्म पर ही बने टिकट बुकिंग विंडो का तरफ चला गया। जहाँ डिजिटल-डिस्प्ले पर आने-जाने वाली गाड़ियों का टाइम दिखाया जा रहा था। डिजिटल-डिस्प्ले पर फरका एक्सप्रेस दस नंबर प्लेटफार्म से चलने का दिशा-निर्देश था। मैंने डिजिटल-डिस्प्ले का अपने मोबाइल फोन से फोटो खींच लिया। जा कर अपनी जीवन-संगिनी को दिखाया, और बताया कि फरका एक्सप्रेस सोलह की बजाए दस नंबर प्लेटफार्म से जाएगी। इन्होंने कहा पहले अच्छे से तसल्ली कर लो। मैं बेटी लाक्षा को साथ लेकर फिर गया। लाक्षा ने भी डिस्प्ले पर वही देखा। उसके बाद हम सबने तय किया कि प्लेटफार्म नंबर दस पर, जा कर ही इंतजार किया जाए। हमने पूर्ववत भारी-भरकम सामान उठाया और दस नंबर प्लेटफार्म पर जा कर रख दिया। मन में आशंका और उधेड़-बुन चल रही थी कि ट्रेन इसी प्लेटफार्म से जाएगी या सोलह से। अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए साथ के टी-स्टाल के संचालक से पूछा कि फरका एक्सप्रेस प्लेटफार्म नंबर दस से ही जाएगी? उसने कहा, “नहीं सोलह नंबर प्लेटफार्म से जाएगी।” मैंने उसे बताया कि डिजिटल-डिस्प्ले पर तो प्लेटफार्म दस दिखा रखा है। उसने कहा कि या तो मेरी मान लो, या फिर डिस्प्ले की मान लो। हम तो कभी इन मशीनों पर भरोसा करते नहीं।
मैंने न तो उनकी मानी, न ही डिस्प्ले की। मैंने बड़ी भागा-दौड़ करके, रेलवे के एक कर्मचारी से पूछताछ करके, पूछताछ केंद्र ढूंढा। जो टिकट विंडोज, वेटिंग रूम व प्लेटफार्म से दूर अलग ही स्थान पर था। जिसे अधिकतर ढूंढ़ नहीं पा रहे थे। पूछताछ केंद्र पर बैठे बाबू ने बताया कि गाड़ी संख्या 13484 फरका एक्सप्रेस सोलह नंबर प्लेटफार्म से ही जाएगी। तब तक फरका एक्सप्रेस का चलने का समय भी नजदीक आ गया। चलने का समय हो जाने के कारण, दिल की धड़कन का बढ़ना स्वाभाविक-सी बात है। सीने में धड़कता दिल और कंधे पर भारी बैग का भार लेकर हम सब प्लेटफार्म नंबर सोलह की ओर रवाना हुए। भला हो स्वचालित सीढियों का जिन्होंने थके-हारे बदन को उतरने-चढ़ने में कुछ राहत दी।
सोलह नंबर प्लेटफार्म से हम फरका एक्सप्रेस के ‘बी2’ में सवार हुए।

9.
फरका एक्सप्रेस का सफर

04 नवंबर 2022 को रात्रि के 21:30 बजे हम फरका एक्सप्रेस में सवार हुए। जो 21:40 बजे निर्धारित समय पर चल पड़ी। गाड़ी के ‘ए सी3’ के ‘बी2’ में सीट नंबर 18, 19, 20 व 21 पर विराजमान हो गए। हमने सीटों की जानकारी गूगल पर PNR Status लिखकर सर्च की। रिजर्वेशन चार्ट न कहीं प्लेटफार्म पर लगाया हुआ था और न ही ट्रेन में। जो एंड्रॉयड फोन नहीं चला सकता, वह तो आधा सफर भटकता रहता। उसे यह जानने में बड़ी मशक्कत क,नी पड़ती कि उसकी सीट कौन-सी है?
17 नंबर सीट किसी महिला थी। उसके बेटे की सीट किसी और बोगी में थी। वह इस इंतजार में था कि 18, 19, 20 व 21 नंबर सीटों पर कोई आएगा तो उसके साथ सीटों का तबादला करके। अपनी माँ के साथ वाली सीट ही ले लेगा। लेकिन हमारे आने से उसके अरमानों पर पानी फिर गया। उसने अलग बोगी में ही अपना सफर करना पड़ा। ‘ए सी3’ में बैड शीट, तकिया व कम्बल उपलब्ध थे। बैड शीट और तकिये तो हमने प्रयोग कर लिए। लेकिन कम्बल नहीं ओडे। घर से लाई हुई, लोई-चद्दर ही ओढ़कर सो गए। रात को नींद भी ठीक आई। सो कर सुबह उठे। क्योंकी ‘ए सी3’ में फालतू लोगों का आना-जाना नहीं होता। यात्रा स्लीपर या जनरल की अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित होती है। इसलिए ही रात्रि में हम सबको चैन की नींद आई।
सुबह उठे, ट्रेन उत्तर प्रदेश के दर्शन करवाती जा रही थी। ट्रेन की विंडो के शीशे से दिखाई देने वाले अधिकांश घरों की दीवारों में ईंटों के बीच से अभाव की दरारें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं। अनेक स्थानों पर स्थानीय लोग झुग्गी-झोपड़ियों में भी गुजर-बसर करते दिखे। यहाँ एक बात विशेष लगी कि भले ही लोग दड़बानुमा घरों में रहें। भले ही लोगों के घरों में लिपाई-पुताई नहीं की हुई थी। भले ही अनेक मकान बिना मुंडेर के देखे गए। परन्तु प्रत्येक गांव व प्रत्येक नगर में मंदिर व मस्जिद आलिशान थे। लिपाई-पुताई किए हुए थे। पूरी साज-सज्जा के साथ सुशोभित थे। भले ही अधिकतर लोग फटेहाल थे। मैले-कुचेले व चीथड़ेनुमा कपड़े पहने थे। लेकिन उनकी छत पर धर्म की धव्जा चमकीले, नए व आकर्षक रंग में फहर रही थी। इन ध्वजाओं को अलग-अलग गिन कर, सहज ही, कोई भी बता सकता है कि किस गाँव में कितने मुसलमानों के घर हैं, कितने हिन्दुओं के? हरियाणा के लोग इतने धार्मिक नहीं हैं। जितने उत्तर प्रदेश के लोग हैं।
रास्ते में बड़ी मात्रा में ईंख के खेत दिखाई दिए। जो बीस-बाइस वर्ष पहले हरियाणा-पंजाब में भी लहलहाते थे। लेकिन अब ईंख की खेती हरियाणा-पंजाब में प्रचलन से बाहर हो गई। बड़ी मात्र में आम के पेड़ भी दिखाई दिए। अनेक नदियों को, पुलों के माध्यम से पार करके आगे बढ़े। हर जगह भीड़-भाड़, धक्कम-पेली करते-कराते निर्धारित समय से तीन घंटे से ज्यादा देरी से फरका एक्सप्रेस जा रुकी वाराणसी के रेलवे-स्टेशन पर। प्लेटफार्म पर भी अत्यधिक भीड़ थी। भीड़ को देखकर मेरी जीवन संगिनी अत्यधिक परेशान हो जाती है। क्योंकि उसने अनेक पुरानी हिन्दी फिल्में देखीं हैं। इन अधिकतर फिल्मों में भीड़-भाड़ वाले स्थान पर परिजन बिछुड़ जाते हैं।
भीड़ को पार करके, जैसे-तैसे पुल के माध्यम से स्टेशन से बाहर निकले। जब स्टेशन से निकले तो लगा ही नहीं कि हम रेलवे-स्टेशन से बाहर निकल रहे हैं। ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे किसी धर्म-स्थल से बाहर आए हैं। वाराणसी के रेलवे-स्टेशन के ऊपरी भाग पर, तीन वही ढांचे उसारे गए हैं। जो हिन्दू मंदिरों के ऊपरी भाग होते हैं। रेलवे-स्टेशन के बांई ओर एक ऊँची पानी की टंकी थी। जिस पर एक जटाधारी बाबा का चित्र उकेरा गया था। उसी बाबा का चित्र स्टेशन के अंदर की तरफ प्रवेश द्वार पर भी था। इसलिए ऐसा प्रतीत ही नहीं हुआ कि हम रेलवे-स्टेशन से बाहर आए हैं। ऐसा लगा जैसे किसी बाबा के मठ या आश्रम से बाहर निकले हैं।

10.
वाराणसी पहुंचने के बाद

किसी भी रेलवे-स्टेशन या बस अड्डे के बाहर बड़ी संख्या में ऑटो-चालक, रिक्शा-चालक या टैक्सी चालक खड़े मिलते हैं। जो सवारियों को आवाज लगाते हैं। रेलवे-स्टेशन से बाहर निकलने वाली सवारियों से चलने के लिए पूछते भी हैं। यही नजारा वाराणसी रेलवे-स्टेशन के बाहर भी था। बेरोजगारी, बेकारी की मार झेलते लोग, किराए पर ऑटो-रिक्शा लेकर चलाते हैं। सवारी ढोकर अपना व अपने परिवार का पेट पालते हैं। ये मेहनतकश लोग, भीख मांग कर खाने वालों से बहुत अच्छे हैं। जो कड़ी मेहनत करके खून-पसीने की हक-हलाल की कमाई खाते हैं।
हम 05 नवंबर 2022 को सांय 18:30 बजे निर्धारित समय से साडे तीन घंटे देरी से वारणसी पहुंचे। रेलवे-स्टेशन से बाहर निकलते ही मैंने अपने मेजबान, (जिन्होंने मुझे बनारस बुलाया) डॉ. महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ को फोन मिलाया। पूछना चाहा कि रेलवे-स्टेशन से हमने कहाँ आना है? उन्होंने कहा कि ऑटो लेकर लंका पहुंच जाओ। लंका पहुंच कर ‘सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया’ के सामने उतरना। बैंक के सामने ही ‘स्वयंवर वाटिका’ होटल है। स्वयंवर वाटिका में चले आना।
उनके कहे अनुसार, स्टेशन के बाहर खड़े ई-रिक्शा वाले से कहा कि लंका ले चलोगे। चालक से पहले ही एक वयोवृद्ध सवारी ने कहा, आइए मैं भी लंका ही चल रहा हूँ। उसने बात आगे बढ़ाई, आपकी भाषा बता रही है कि आप हरियाणा से हो। मैंने कहा जी हाँ हम हरियाणा से ही हैं। तो उनका अगला सवाल था कि यहाँ कैसे? मैंने कहा कि ‘जन लेखक संघ’ के आयोजन में आए हैं। यह जानकर वे बड़े खुश हुए। उन्होंने बताया कि वे भी पलवल, हरियाणा से ही हैं, और वे भी उसी आयोजन में शामिल होने आए हैं। जिसमें हमने शामिल होना है। उन्होंने अपने परिचय में बताया कि वे सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ. धर्मचंद विद्यालंकार हैं।
हम प्रोफेसर धर्मचंद विद्यालंकार के साथ ई-रिक्शा में सवार हो कर चल पड़े। हमने सोचा थोड़ा चलकर ‘स्वयंवर वाटिका’ होटल आ जाएगा। हम हर आलिशान इमारत को यही सोचकर देख रहे थे कि हो न हो यही ‘स्वयंवर वाटिका’ होटल न हो। ‘स्वयंवर वाटिका’ बड़ा ही आकर्षक नाम है। इस नाम से ऐसा प्रतीत हुआ कि यह विवाह-शादियों के लिए बुक किया जाता होगा। ई-रिक्शा भीड़-भाड़ भरे शहर को पार करती जा रही थी। रास्ते में कहीं अमीरों की खरीदारी के लिए बड़े-बड़े शॉपिंग-मॉल आ रहे थे। कहीं गरीबों-अभावग्रस्तों के लिए सस्ते सामान वाली छोटी-छोटी दुकान, खोखे-खोमचे, रेहड़ी आ रही थी। कहीं आलिशान इमारत, कोठी-बंगले तो कहीं एक ही प्लाट में छोटे-छोटे पाँच-छह दड़बानुमा मकान थे। संसाधनों का असमान बंटवारा बहुत ही दुखदाई प्रतीत होता है।
ई-रिक्शा बनारस के दर्शन करवाती जा रही थी। रास्ते में पुरानी दुकान, पुराना बाजार व पुरानी हवेलियाँ भी आई। रास्ते में आने वाले प्रत्येक बैंक ने आश्वासन दिया कि सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया भी अवश्य ही आएगा। कितना सफर करें? टोहाना से दिल्ली और दिल्ली से बनारस लम्बा सफर तय करके मन-मस्तिष्क और अधिक सफर तय करने को तैयार नहीं था। लेकिन भीड़-भरे बाजार के बीच से, धुंआ फेंकते वाहनों के संग ई-रिक्शा का सफर करना मजबूरी थी। कार्यालय, दुकान, मकान व प्रतिष्ठान सब कुछ आया। सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया नहीं आया। जिसके पास हमने ई-रिक्शा से उतरना था। यह लंका तो श्रीलंका से भी दूर प्रतीत होने लगी।
थोड़ा-सा चल कर एक बड़ा-सा गेट आया। जिस पर मोटे-मोटे सनहरी अक्षरों सतगुरु रविदास गेट लिखा था। पढ़ कर मन बड़ा प्रसन्नचित्त हुआ। बहन मायावती के शासनकाल में इस गेट का नींव पत्थर साहब श्री कांसीराम ने अपने पावन हाथों से ही रखा था। जबकि इस भव्य गेट का लोकार्पण भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. के. आर. नारायणन ने किया था। सतगुरु रविदास गेट से मुश्किल से सौ मीटर चलते ही सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया आ गया। ई-रिक्शा चालक ने कहा की साहब लंका आ गई उतरिए। मन सोचने को मजबूर हो गया कि उस क्षेत्र को सतगुरु रविदास गेट के नाम से नहीं लंका के नाम से जाना जाता है। क्यों?
यहाँ उतर कर आँखें स्वयंवर-वाटिका देखने को बेताब थीं। मेरी आँखों ने स्वयंवर-वाटिका को इधर-उधर, दायें-बायें खूब खोजा परन्तु नहीं मिला। उसके बाद फल-सब्जी की रेहड़ी वालों से स्वयंवर वाटिका के बारे में पूछा।

11.
स्वयंवर वाटिका

दुरभाष पर आयोजक डॉ. महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ से बात हुई। तो उन्होंने बताया कि लंका में सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया के सामने ‘स्वयंवर वाटिका’ नामक होटल है। वहाँ चले आओ। सब के ठहरने की व्यवस्था, ‘स्वयंवर वाटिका’ में ही की गई है। ‘स्वयंवर वाटिका’ का नाम सुनने में बड़ा ही कर्णप्रिय, रोचक व आकर्षक लगा। ‘स्वयंवर वाटिका’ को लेकर बड़ मनभावन बिम्ब बनने लगे। ‘स्वयंवर वाटिका’ का नाम जेहन में आते ही मन-मस्तिष्क में आलिशान इमारत का चित्र लगा। मैं सोच रहा था कि ‘स्वयंवर वाटिका’ की इमारत विवाह-शादियों की बुकिंग के लिए उपलब्ध होती होगी। उसकी वाटिका में फल-फूल-पत्तियों वाले पेड़-पौधों का बगीचा भी होगा। जिसे देख कर सारी थकावट दूर हो जाएगी। ई-रिक्षा वाले ने हमें सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया के सामने उतार दिए। पूछने पर पता चला कि सामने की गली में ही ‘स्वयंवर वाटिका’ है। बताई गई गली में जाकर देखा तो वह गली पाँच-छह फुट चौड़ाई वाली गली थी। जहाँ से शुरु हुई, वहाँ ‘स्वयंवर वाटिका’ का बोर्ड लगा हुआ था। ‘स्वयंवर वाटिका’ मिलने से राहत महसूस तो हुई। परन्तु ‘स्वयंवर वाटिका’ वैसी तो नहीं थी। जैसे हमने उसे लेकर सपने सजा रखे थे। हमने ‘स्वयंवर वाटिका’ के रिसेप्शन रूम में प्रवेश किया। जहाँ लिखा था ‘डबल-बैड वाले रूम का किराया 500/- रुपए’। जहाँ हम डॉ. महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ से पहली बार रुबरू हुए। हालांकि मोबाइल पर बात तो दर्जनों बार हो चुकी थी। वे पतली-लम्बी काया, सरल हृदय, जैसा अंदर वैसा बाहर, दृढ़-निश्चयी, सेवा-निवृत मुख्याध्यापक हैं, यह उनका व्यक्तित्त्व है।
वे मैनेजर को साथ लेकर, हमें हमारा रूम दिखाने के लिए चल पड़े। हम भी उनके पीछे-पीछे चले गए। रूम में दो बैड लगे थे। एक डबल बैड और दूसरा सिंगल बैड। सबसे पहले हमने तीन दिन से कंधे पर लदे भारी-भरकम बैग उतार कर रखे। रूम तो था लेकिन रूम जैसा नहीं था। रूम जैसा होता तो इसका किराया पांच सौ रुपए नहीं होता। सबसे पहले मैंने बाथरूम का अवलोकन किया तो राहत की सांस ली। क्योंकी इसमें एंग्लो-इंडियन सीट की व्यवस्था थी। वरना सुबह यह भी समस्या होती।
रूम, बैड और बिस्तरों की दशा देखकर पूरे परिवार ने इसे खारिज कर दिया। कहने लगे कोई ढंग का होटल देखो। मैंने परिवार की अर्थ-व्यवस्था का हवाला दिया। साथ में उपदेश भी दिया कि आज और कल दो रात का समय व्यतीत करना है। दिन तो आयोजन में गुजर ही जाएगा। हम यही बातें कर रहे थे कि डॉ. महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ की दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला, उनके साथ आकर्षक व्यक्तित्व के धनी डॉ. महेश प्रसाद ‘अहिरवार’ भी थे। उनका परिचय डॉ. महेंद्र नारायण ‘पंकज’ ने करवाया। कुछ ही अंतराल में फिर से डॉ. पंकज की दरवाजे पर दस्तक हुई। उन्होंने खाना खाने का आग्रह किया। हमें ऐसे आग्रह का ही इंतजार था। हम उनके साथ रिसेप्शन रूम में आ गए। वहाँ और लोग भी बैठे थे। उनसे भी परिचय हुआ। जिनसे परिचय हुआ, लगभग वे सभी विश्वविद्यालयों में तैनात प्रोफेसर या सहायक प्रोफेसर थे। प्रोफेसर्स में भी अधिकतर हिन्दी के विभागाध्यक्ष। बड़ा अच्छा लगा कि दो दिन का समय देश-भर से आए शिक्षाविदों की सोहबत में ही गुजरेगा।
तभी जीन्स के ऊपर सफेद कुर्ता डाले हुए, एक युवक आया। पूछने पर पता चला कि यह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्र विंग “बी. एच. यू. बहुजन अनुसूचित जाति/जन जाति व पिछड़ा वर्ग छात्र कार्यक्रम आयोजक समिति” के अध्यक्ष हैं। आवास संबंधी व्यवस्था जन लेखक संघ की थी। बाकि सभी विश्वविद्यालय में आयोजन सहित तमाम व्यवस्था इनके छात्र-संगठन की तरफ से ही की गई। हम उस छात्र-नेता के साथ एक भोजनालय में चले गए। भोजनालय में तिल धरने को भी जगह नहीं थी। भीड़ को देखकर दम सा घुट रहा था लेकिन हमें भीड़ को चीरकर ऊपर के एक डायनिंग हाल में ले जाया गया। जो सिर्फ आयोजन के प्रतिभागियों के लिए ही बुक था। डीनर बड़ा ही लजीज था। डीनर में रोटी, मटर-पनीर, शाही पनीर, पापड़, सलाद व दाल-चावल उपलब्ध थे। हमने असम से आए प्रोफ़ेसर डॉ. नागेश्वर यादव और उनकी जीवन संगिनी के साथ खाने की टेबल सांझी की। डीनर के साथ-साथ बातें भी खूब हुई। डॉ. नागेश्वर यादव असम के रवींद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष हैं। दो दिन के आयोजन में उनकी जीवन-संगिनी, मेरी जीवन-संगिनी के साथ ही रही। बड़ा अच्छा रहा। वहीं पर महाराष्ट्र से आए अरुण घायवण व उनकी जीवन-संगिनी मनिषा से मुलाकात हुई। हम डीनर करके, ‘स्वयंवर वाटिका’ में आकर, अपने-अपने कक्ष में सो गए।
अगले दिन सबसे पहले उठने वाला मैं ही था। शौचालय गया। एंग्लो-इंडियन सीट में वाशिंग की व्यवस्था होती है, लेकिन हमारे रूम से अटैच बाथरूम की एंग्लो-इंडियन सीट में वो व्यवस्था नहीं थी। हमने होटल के मैनेजर से गर्म पानी की व्यवस्था करने का अनुरोध किया। जो लगता दे देंगे। लेकिन उसने हमारा अनुरोध बड़ी ही विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया। इसलिए सुबह नहाना भी ठंडे पानी में ही पड़ा। रूम व बाथरूम में सही तरीके से कुछ भी नहीं था। हर जगह जुगाड़ जिंदाबाद था। भारत में जुगाड़ ही है जो अजर-अमर है। आत्मा तो अक्सर शरीर से भी पहले ही मर जाती है।

12.
आयोजन का प्रथम दिन

दिनांक 06 नवंबर 2022 को सुबह ही डॉ. महेंद्र नारायण ‘पंकज’ ने दरवाजे पर दस्तक दी। उन्होंने अपने ही अंदाज में बताया कि ब्रेकफास्ट, लंच व डीनर की सारी व्यवस्था बी. एच. यू. प्रांगण में ही है। जल्द से तैयार हो जाओ। आठ बजे तक बी. एच. यू. के आर्ट फेकल्टी स्थित डॉ. राधा कृष्णन सभागार में पहुँच जाना है। उनके कहे अनुसार बी. एच. यु. की आर्ट फेकल्टी में डॉ. राधा-कृष्णन सभागार में पहुँच गए। कुछ मेहमान नेपाल से भी आए हुए थे। सभागार के बाहर बरामदे में ही भोजन की व्यवस्था की गई। बरामदे में कुछ टेबल सजाए हुए थे। उन टेबल पर ब्रेड, जैम, केले, शॉश, हलवा, काले छोलों की सब्जी व आलू के भरवां बड़े-बड़े पकोड़े रखे थे। भोजन लजीज तो था ही खाने व खिलाने की व्यवस्था भी काबिले-तारीफ थी। सभी ने कतारबद्ध होकर प्लेट उठाई, भोजन डाला और अपनी सुविधानुसार कुछ ने खड़े-खड़े तो कुछ ने बैठ कर खाना खाया।
ब्रेकफास्ट करके सभी प्रतिभागी सभागार में रखी कुर्सियों पर जा कर विराजमान हो गए। कार्यक्रम का उद्घाटन सत्र की शुरुआत डॉ. महेश प्रसाद अहिरवार के अभिभाषण के साथ हुई। डॉ. अहिरवार ने सभी का स्वागत किया, साथ में कार्यक्रम की पूरी रूप-रेखा व उद्देश्य बताए, साथ में देश-विदेश से आए हुए लेखकों का अभिनन्दन भी किया। डॉ. अहिरवार बी. एच. यू. में ही प्रोफेसर हैं। इस सत्र की अध्यक्षता हरियाणा के पलपल से पहुँचे प्रोफ़ेसर डॉ. धर्मचंद विद्यालंकार ने की जबकि मुख्यतिथि असम से आए प्रोफ़ेसर डॉ. नागेश्वर यादव थे। सबसे पहले बाबासाहब के चित्र पर मंचासीन अतिथियों ने पुष्पांजलि अर्पित की। तत्पश्चात सभी मंचासीन का फूल मालाओं से स्वागत किया गया। प्रत्येक सत्र में इसी परम्परा का निर्वहन किया गया। इस सत्र में सभी वक्ताओं का संबोधन लाजवाब रहा। वंचित वर्ग व उसके हक-अधिकारों पर मंडरा रहे भेदभाव व साम्प्रदायिकता के बादलों के प्रति सचेत किया। सभी वक्ताओं का संबोधन समाज को ऊर्जा देने वाला था। उद्घाटन सत्र खत्म होते-होते दोपहर के भोजन का समय हो गया। आधे घंटे के लिए सभा विसर्जित को विसर्जित कर दिया गया। सभी ने दोपहर का भोजन किया। भोजन में सलाद, अचार, दाल, दो प्रकार की सब्जी, पापड़, पूरी व गुलाब-जामुन की सुंदर व्यवस्था की गई थी। आयोजन में शामिल सभी प्रतिभागियों ने भोजन की सराहना की। हालांकि मैंने पूरी नहीं खाई, सलाद के साथ सब्जी ही खाई। मेरे साथ-साथ ओर भी बहुत से लोग थे जिन्होंने पूरी नहीं खाई। अधिकांश पूरियों की बजाए रोटी खाना चाहते थे। दोपहर के भोजन के बाद दूसरा सत्र प्रारम्भ हुआ।
दूसरे सत्र का विषय “बहुजन आंदोलन में बहुजन लेखक की भूमिका” था। इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. नागेश्वर यादव ने की जबकि मुख्यितिथि डॉ. धर्मचंद वेदालंकार थे। वक्ता एडवोकेट डॉ. आर. के. गोतम, डॉ. राजेश पाल, डॉ. अनिल गोतम गोरखपुर, शिक्षक सुरेश अकेला, थे। वक्ताओं ने बहुत से अनछुए पहलुओं पर विचार प्रकट ही नहीं किए बल्कि जिन मुद्दों पर सदियों से धूल जमी थी। उन मुद्दों से धूल भी उड़ाई। डॉ. वेदालंकार जो कि पलवल, हरियाणा से ही हैं। उनका वक्तव्य चहुंओर चर्चा का विषय बना हुआ था। आज के तीसरे सत्र के रूप में कवि-सम्मेलन होना प्रस्तावित है।

13.
तीसरा सत्र कवि-सम्मेलन

आज 06 नवंबर 2022 की शाम की महफिल, बी. एच. यू. के डॉ. राधा कृष्णन सभागार में सजाई गई। इस महफिल में कवियों ने अपनी कविताओं से समां बांध दिया। किसी को वाह तो किसी को आह कहने को मजबूर कर दिया। यह कवि-सम्मेलन जन लेखक संघ के बैनर तले आयोजित गया। आज का कवि-सम्मेलन के डॉ. दिनेश चन्द्र के संयोजन में, प्रख्यात शायर अलकबीर की अध्यक्षता में हुआ। उर्दू मुशायरों की शान शमीम गाजीपुरी, नेपाल से आए भवानी पोखरेल, मधु पोखरेल, शरद गुस्ताख, एडवोकेट आर के गोतम, अनिल कुमार गोतम, राजेश पाल, आनंद कुमार सुमन भी मंच की शोभा बढ़ा रहे थे। इनके साथ ही आपके-अपने साहित्यकार विनोद सिल्ला को भी मंच पर स्थान मिला। मंच का कुशल-संचालन शिक्षाविद व कवि सुरेश अकेला ने किया। जिन कवियों ने अपनी रचनाएं पढ़ीं उनमें प्रमुख थे- शमीम गाजीपुरी, हरियाणा से विनोद सिल्ला, नेपाल के भवानी पोखरेल एवं मधु पोखरेल, महाराष्ट्र के शरद गुस्ताख़, गोरखपुर के डॉ. अनिल कुमार गौतम व आनंद कुमार सुमन, देहरादून के प्रो राजेश पाल, रविन्द्र नाथ टैगोर विवि असम के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो नागेश्वर यादव, इलाहाबाद के एडवोकेट आर. के. गौतम, डॉ. इंदु कुमारी, कपिल देव कल्याणी, पूजा, डॉ. प्रियंका, मीना रानी (हरियाणा) इत्यादी ने भी कविता-पाठ किया।
सभी रचनाकारों ने समाज में व्याप्त भाषा, क्षेत्र, जाति-धर्म व लिंग आधारित भेदभाव पर सभी कड़ी चोट की। अध्यक्षीय वाचन के बाद, आभार ज्ञापन शिक्षाविद व साहित्यकार अरविंद कौशल ने किया।
आज के कवि-सम्मेलन में कविता-पाठ करने वाले वो कवि/कवियित्री थे। जिनको मूलधारा के आयोजन में या तो सुना ही नहीं जाता या फिर सुन कर उपेक्षित किया जाता है। यहाँ सुनने वाले भी और सुनाने वाले भी एक ही विचारधारा के लोग थे। कई तो एक रचना सुनाकर बैठ गए। कई मंच से चिपक कर ही रह गए। जो मंच से बड़ी मशक्कत से करके हटाने पड़े। वे भी क्या करें? इतना बड़ा मंच हर रोज नहीं मिलता।
आभार ज्ञापन के साथ ही लजीज रात्रिभोज करके, सभी स्वयंवर वाटिका में जाकर सो गए।

14.
गंगा-घाट पर

07 नवंबर 2022 की सुबह उठे। बारी-बारी हम चारों रफा-हाजत से फारिग हुए। फिर बारी-बारी नहाए। डॉ. महेंद्र नारायण ‘पंकज’ आए। उन्होंने दिशा निर्देश दिए कि जिन्होंने आज जाना है, वो अतने-अपने रूम खाली करके जाना। सामान मेरे रूम में रख दो। अगर रहना है तो पांच सौ रुपए आपका-अपना ही लगेगा। ये रूम हमने आपके लिए आज दोपहर 12:00 बजे तक के लिए ही बुक किए हुए हैं। उसके बाद रुकना है तो किराया आपने ही देना होगा।
हमने तो आज ही निकलना है। सांय के छह बजकर तीस मिनट पर हमारी ट्रेन वाराणसी से दिल्ली के लिए चलनी हैं। हमने अपना सामान समेटा और तीनों बैग डॉ. महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ के रूम में रख दिये। बाकी लोग आयोजन में चले गए। हमने अपना रुख गंगा-घाट की ओर कर लिया। एक ई-रिक्शा लेकर हम गंगा-घाट की ओर अग्रसर हुए। कुछ ही मिनट का सफर तय करके, गंगा-घाट से कुछ दूर पहले ही, ई-रिक्शा रुकी। चालक ने कहा रिक्शा यहीं तक जाएगी। आगे पुलिस नहीं जाने देती। हम ई-रिक्शा से वहीं पर उतर गए। उसका किराया चुका कर पैदल ही चल पड़े। गंगा-घाट तक जगह-जगह भिखारियों ने अड्डे जमाए हुए थे। सब के सब ईश्वर के नाम पर मांग रहे थे। उनके मांगने के तौर-तरीके व मांगने पर मन-मस्तिष्क में बहुत से सवाल कुलबुला रहे थे। सवालों को जाहिर करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। यहाँ लोगों की भावनाएं बेहद सस्ती हैं। जो बहुत जल्द आहत हो जाती हैं। भीड़ के पास अपनी कोई शक्ल-अक्ल भी नहीं होती। मन में सवाल उठे, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से आज तक अधिकतर प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश की धरती ने दिए। राम और श्याम भी उत्तर प्रदेश की धरती ने दिए। संत शिरोमणी रविदास व क्रान्तिकारी संत कवि कबीर भी उत्तर प्रदेश की धरती ने दिए। रामचरित मानस के रचनाकार तुलसीदास भी उत्तर प्रदेश ने दिए। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन जैसे बड़े-बड़े लेखक, कवि उत्तर-प्रदेश की धरती ने दिए। तथागत गोतम बुद्ध ने भी अपना प्रथम संदेश उत्तर-प्रदेश की धरती पर ही दिया था। लेकिन फिर भी उत्तर-प्रदेश के अधिकांश निवासी अभावग्रस्त जीवन जी रहें हैं। मूलभूत सुविधाओं से बहुत दूर हैं। उत्तर-प्रदेश के अधिकांश निवासी पूरे भारत में प्रवासी मजदूर बन कर जाते रहे हैं। क्यों?
भिखारियों की दुआ-बददुआ को अनसुना करते हुए हम आगे बढ़े। हम जा पहुंचे गंगा-घाट पर। जहाँगंगा के घाट पर छोटी-बड़ी तरह-तरह की कश्तियाँ खड़ीं थीं। नवागंतुकों को देखते ही सभी कश्तियों वाले एक्टिव मोड में आ जाते हैं। कर देते हैं तौल-मौल शुरु। फंसा लेते हैं धर्म-भीरू भोले-भाले लोगों को। लेकिन हम उनकी बातों में नहीं आए। वे कश्ती में घुमाने के 4500/- रुपए मांग रहे थे। हमने 1000/- रुपए में यात्रा की। कश्ती से ही अनेक घाट देखे जो अनेक राजा-महाराजाओं ने बनवाए थे।
कश्ती की सवारी करने से पूर्व एक व्यक्ति हमारे पास आया। उस व्यक्ति ने सफेद कपड़ा कमर से नीचे बांध रखा था। ऊपर सफेद बनियान बाजु वाली पहनी हुई थी। आ कर कहने लगा, “गंगा स्नान किया या नहीं?” मैंने कहा हम अपने होटल से नहा कर ही आए हैं। उसने कहा कि यहाँ नहाने का अलग ही महत्व है। मैंने कहा कि गंगा का पानी गंदा है। नहाने लायक नहीं है। उसने प्रत्युत्तर में कहा कि आप पहले व्यक्ति हैं जो गंगा जी के पानी को गंद् बता रहे हो। मैं नहीं जानता कि आप क्या हैं? कौन हैं? लेकिन यहाँ तो चीफ सेक्रेट्री आए थे। उनके पूरे शरीर पर फफोले थे। हमारे कहने से उसने स्नान किया तो उसके सभी फफोले ठीक हो गए। मेरी जीवन-संगिनी मीना रानी ने कहा कि जब हमारे शरीर पर फफोले होंगे तब हम नहा लेंगे।
उसके बाद एक जनसमूह ओर भी आया। इस जनसमूह में शामिल सभी लोग एक ही परिवार के प्रतीत हो रहे थे । एक बोला कि ऐसे पानी में नहाना पड़ेगा। दूसरा बोला, अरे कुछ नहीं यार बस एक ढूबकी ही लगानी है। सब ठीक हो जाएगा। एक अन्य कह रहा था कि कुछ भी हो मैं तो नहीं नहाऊंगा।
उसके बाद हम वहाँ से भिखारियों के समूह के बीच से वहीं वापस आ गए जहाँ ई-रिक्शा वाले ने उतारे थे। वहाँ से ई-रिक्शा लेकर लंका आ पहुंचे।

15.
सतगुरु रविदास का जन्मस्थान

बी. एच. यु. के लंका गेट से ‘गोवर्धन-सीर’ के लिए ई-रिक्शा ली। जैसे गाँव में गलियों से व उपलब्ध सुविधाओं से अंदाजा हो सकता है कि आस-पास किन के घर हैं। अनुसूचित जाति/जन जाति के, पिछड़ा वर्ग या सामान्य वर्ग के हैं। ऐसा ही अनुभव बी. एच. यु. से ‘सीर गोवर्धन’ यानि कि सतगुरु रविदास के पैतृक स्थान पर जाते समय महसूस हुआ। पूरे रास्ते में लोगों के पुराने जीर्ण-शीर्ण मकान व जीर्ण-शीर्ण दुकान दिखाई दी। सड़क के हालात व अन्य सुविधाएं चीख-चीख कर बता रही थी कि यह क्षेत्र सतगुरु रविदास के वंशज/अनुयाई का है। इसीलिए अभावग्रस्त है। सतगुरु रविदास के जन्मोत्सव पर यहाँ पूरे भारत से अनुयाई आते हैं। संगत के ठहरने के लिए एक धर्मशाला ही दिखाई दी। जिस पर संत गरीबदास यात्रि-निवास लिखा हुआ था। ई-रिक्शा वाले ने ‘सीर गोवर्धन’ स्थित सतगुरु रविदास के मंदिर के सामने उतार दिए। हमने किराया चुकाया और चलने लगे। ई-रिक्शा का चालक कहने लगा जल्दी वापस आते हो तो मैं आपका इंतजार करूं। आपको वापस भी ले चलूंगा। मैंने कहा आप जा सकते हैं। हम वापसी में अपने हिसाब से जाएंगे। पता नहीं हमें यहाँ पर कितना समय लग जाए।
हमने सतगुरु रविदास के ‘सीर गोवर्धन’ स्थित मंदिर में प्रवेश किया। गेट पर बैठे सेवादार के पास रखी टोकरी से कपड़ा उठा कर सिर पर बांध लिया। हालांकि सतगुरु रविदास प्रतिमा में स्वयं खुले केश बिना कपड़ा बांधे हैं। हमने सतगुरु रविदास की प्रतिमा के समक्ष सिर झुकाया। एक तरफ पुरुष बैठे थे, उधर जाकर मैं और बेटा अनमोल बैठ गये। दूसरी तरफ महिलाएं बैठी थीं, उधर मेरी जीवन-संगिनी मीना रानी और बेटी लाक्षा जा बैठी। सामने 130 किलोग्राम वजन की सोने की पालकी में सतगुरु रविदास की प्रतिमा सुशोभित थी। जिसके एक ओर बहुत बड़ा सोने का पात्र रखा था। जिसमें अखंड ज्योति जल रही थी।
शब्द कीर्तन के समापन उपरान्त गुरुद्वारों की ही तर्ज पर अरदास की गई, उसी तरह हलवे का प्रसाद बांटा गया। डेरा सचखंड बलां वालों ने इस परम्परा को सख्ती से लागू किया हुआ है। हालांकि संत-महापुरुष रूढ़ियों से मुक्त करने के लिए आते हैं। लेकिन उनके अनुयाई उन्हीं संत महापुरुषों के नाम पर नई परम्परा प्रचलन में ले आते हैं। तथागत गोतम बुद्ध ने आत्मा-परमात्मा के आस्तित्व को नकार दिया था। लेकिन उनके अनुयाइयों ने उन्हें ही महात्मा व भगवान जैसे तखल्लुस से नवाज दिया। सतगुरु कबीर ने मूर्ति-पूजा सहित तमाम पाखंडों पर पुरजोर प्रहार किया। लेकिन आज कबीर के अनुयाई कबीर की मूर्ति के समक्ष दीए जलाते पूजा करते देखे जा सकते हैं। थोड़ी ही देर बाद एक सफेद कुर्ता पायजामा पहने आकर्षक व्यक्तित्व के धनी ने सपरिवार मंदिर में प्रवेश किया। उसकी पत्नी ने भी सफेद सूट-सलवार डाल रखा था। साथ में अन्य परिजन व प्रियजन भी थे। उन्होंने किसी ने भी सिर नहीं ढका हुआ था। हलवे का प्रसाद देने वाले ने भी सिर ढकने को कहा। उन्होंने हाथ के इशारे से ही जवाब दिया। हलवा प्रसाद खाने के बाद। पीछे की तरफ चले गए। वहाँ उन महोदय से बातचीत हुई। बातचीत से पता चला कि वह आकर्षक व्यक्तित्व के धनी उत्तर प्रदेश पुलिस में डी. एस. पी. के पद पर तैनात मान्य. उमेश कुमार हैं। जो साहब कांसीराम केवल मुख्यमंत्री रहते हुए बहन मायावती के सुरक्षा अधिकारी रहे हैं। डी. एस. पी. साहब ने यह भी बताया कि संत रामानंद के अंतिम संस्कार मे शामिल होने उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री बहन मायावती डेरा सचखंड बलां गई थीं। तब डी. एस. पी.साहब भी बतौर सुरक्षा अधिकारी साथ गए थे।
डी. एस. पी. साहब से विदा लेकर दूसरी तरफ गए जहाँ जमीन के नीचे एक कक्ष बना हुआ है। जिसे डेरा सचखंड बलां द्वारा सतगुरु रविदास का जन्मस्थान, चिंतन-मनन व साधना का स्थल होने का दावा किया जा रहा है। वहीं मंदिर के साथ लगता एक इमली का पेड़ भी है। जिसे सतगुरु रविदास के समय का बताया गया है। हालांकि यह इमली का पेड़ छह सौ साल पुराना प्रतीत नहीं होता। जिसे डेरा सचखंड बलां द्वारा द्वारा सतगुरु रविदास का समकालीन होने का भी दावा किया जा रहा है।
हमने सपरिवार मंदिर के बाहर एक यादगार फोटो लिया और वापस चल पड़े। थोड़ा सा ही चले थे। किसी ने एक अन्य मंदिर बनाया हुआ भी मिला। जिस पर भी लिखा था कि सतगुरु रविदास का जन्मस्थान। सीर गोवर्धन स्थित मंदिर के मुख्य द्वार पर ली गई फोटो सोशल साइट्स के सुपर्द कर दी। एक फेसबुक के मित्र ने कॉमेंट करके बताया कि सतगुरु रविदास का वास्तविक जन्मस्थान मांडूर जिसका वर्तमान नाम लहरतारा में है। खोजने पर यह जानकारी मिली की सतगुरु रविदास का पैतृक निवास स्थान सीर गोवर्धन में ही था। उनका ननिहाल मांडूर यानि लहरतारा में था। उस समय परम्परा थी कि पहला बच्चा ननिहाल में पैदा होगा। इसलिए सतगुरु रविदास के जन्म से पूर्व उनकी माता जी अपने पिता के घर लहरतारा चली गई थी। जहाँ सतगुरु रविदास का जन्म हुआ। अगली बार लहरतारा भी अवश्य ही जाएंगे।

16.
समापन समारोह

सतगुरु रविदास के मंदिर से बी. एच. यू. के दक्षिण द्वार तक पैदल मार्च किया। जो मंदिर से अधिक दूरी पर नहीं है। बी. एच. यू. के दक्षिण द्वार में प्रवेश करके ई-रिक्शा लिया और आर्ट फेकल्टी स्थित डॉ. राधा कृष्णन सभागार में पहुँच गए। पहुंचते-पहुंचते घड़ी की सभी सुइयां मेल-मिलाप करती प्रतीत हुई। यानि कि दोपहर के 12:00 बजे थे। आज दिनांक 07 नवंबर 2022 के कार्यक्रम का प्रथम सत्र भी समाप्त हो चुका था। जिसे हम नहीं सुन पाए। जब हम पहुंचे तो अध्यक्षीय संबोधन भी समापन की ओर था। मात्र धन्यवाद ज्ञापन में उपस्थित हो सके। धन्यवाद ज्ञापन के बाद सभागार खाली हो गया। दोपहर का भोजन लग चुका था। सबने कतारबद्ध होकर अपनी-अपनी प्लेट उठाई और खाना खाने लगे। मेजबान छात्र-संगठन की ओर से इस आयोजन का यह अंतिम भोजन था। भोजन की व्यवस्था लाजवाब रही। आज भोजन में पूरी के साथ-साथ रोटियाँ भी थीं। भर-पेट भोजन खाया।
भोजन उपरान्त अंतिम सत्र यानि समापन सत्र विधिवत प्रारम्भ हुआ। बीएचयू में दो दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी एवं जन लेखक संघ के चतुर्थ राष्ट्रीय सम्मेलन के समापन समारोह की अध्यक्षता “गाँव के लोग” मासिक पत्रिका के संपादक रामजी यादव ने की, जबकि मुख्यातिथि के रूप में ‘रविन्द्र नाथ टैगोर विश्विद्यालय होजाई’ असम के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. नागेश्वर यादव थे। इनके साथ मंच सांझा करने का सम्मान मुझे और मेरी जीवन-संगिनी मीना रानी को भी मिला। डॉ. यादव ने कहा कि बहुजन आन्दोलन के निर्माण की पारंपरिक पृष्ठ-भूमि वैदिक कालीन है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आजीवकों और शम्बूक की विचार-परंपरा में देखने को मिलता है। उन्होंने कहा कि यह परंपरा सिद्धों, नाथों से होती हुई दादू-दयाल, कबीरदास, सतगुरु रविदास और महामना ज्योतिबा फुले तक पहुँचती है। आधुनिक काल में बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर संविधान में मान्यता प्रदान करते हुए, सदियों से दबाए गए दलित, वंचित और उपेक्षित को उनका अधिकार दिलाने के लिए प्रयास किया। उक्त अवसर पर मुख्यवक्ता के रूप में बोलते हुए डॉ. धर्मचंद विद्यालंकार ने कहा ज्ञान के दो भेद हैं। सूचनात्मक ज्ञान और रचनात्मक ज्ञान। रचनात्मक साहित्य का प्रभाव धीरे किंतु दूरगामी और सदियों तक पीढ़ियों तक रहता है। जबकि सूचनात्मक ज्ञान तात्कालिक और कम असरदार होता है। संचालन जन लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव डॉ. महेंद्र नारायण ‘पंकज’ ने किया।
आभार ज्ञापन शिवशक्ति ने किया। ग्रूप फोटो भी बना। फोटो सत्र के बाद वो सभी निकल लिए। जिनकी शाम को ट्रेन थी। हमारी ट्रेन भी शाम के 18:30 बजे की थी। इसलिए हम समय रहते ही समापन समारोह के तुरंत बाद निकल लिए।

17.
स्वयंवर वाटिका से रेलवे-स्टेशन

हम समापन सत्र के तुरंत बाद, सभागार से स्वयंवर वाटिका पहुंचे। डॉ. महेन्द्र नारायण ‘पंकज’ के रूम नंबर 19 की चाबी रिसेप्शन से ली और अपना सामान निकाल कर, फिर से कंधों पर लाद लिया। ई-रिक्शा लेकर चल पड़े रेलवे-स्टेशन के लिए। ई-रिक्शा का चालक बोला साहब कौन से स्टेशन पर चलना है। बनारस के स्टेशन पर या वारणसी के? उसकी बात सुन कर मैं विचलित हो गया। अब तक मैं समझ रहा था कि दोनों नाम एक ही स्थान के हैं। लेकिन चालक के सवाल ने मुझे विचलित कर दिया। उसने ई-रिक्शा दोराहे पर ला कर रोक दी। उसने कहा साहब ये दो रास्ते हैं। एक बनारस रेलवे-स्टेशन के लिए है। जबकि दूसरा रास्ता वाराणसी रेलवे-स्टेशन को जाने के लिए।
मैंने टिकट निकाली और उसे गौर से देखा। टिकट पर वाराणसी से दिल्ली लिखा हुआ था। हमने गाड़ी संख्या 01673 ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ वाराणसी से ही लेनी थी। हमने चालक से कहा कि वाराणसी रेलवे-स्टेशन ले चलो। कुछ ही समय में उसने हमें वाराणसी रेलवे-स्टेशन के बाहर छोड़ दिया। हमने किराया चुका कर उससे विदा ली। ट्रेन में चलने में अभी समय था। रेलवे-स्टेशन पर सभी परिजन को बैठा कर, उनके पास सामान रख कर कुछ खाने पीने का सामान लेने चला गया। मैंने चार रोटी और दाल-फ्राई का ऑर्डर किया। ढाबे वाले ने झटपट तैयार करके पैक कर दी। साथ वाली दुकान से दो ब्रैड के पैकेट, फ्रूट-जैम, दो किलोग्राम सेब, खीरे व दो दो-दो लीटर पानी की बोतलें लेकर स्टेशन पर जा पहुंचा। हमने तमाम खाद्य व पेय-पदार्थ समेत सभी बैग उठाए और प्लेटफार्म नंबर आठ की तरफ चल पड़े। स्वचालित सीढ़ियों से चढते-उतरते हुए, प्लेटफार्म नंबर आठ पर पहुँच गए। जहाँ से हमारी ट्रेन चलनी थी। आठ नंबर प्लेटफार्म पर पहुंचते ही काँच की फ्रूट जैम वाली बोतल गिर कर टूट गई। ट्रेन का इंतजार करते रहे। बार-बार अनाउंसमैंट सुन रहे थे कि गाड़ी संख्या 01673 ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ अपने निर्धारित समय से एक धंटा देरी से चल रही है। फिर एक घंटा से दो घंटा देरी से हुई, फिर ढ़ाई, तीन, युं करते-कराते चार घंटा लेट की अनाउंसमैंट होने लगी। हम इंतजार कर-कर के, अनाउंसमैंट सुन-सुन कर पक गए। तो हमने खाना-खाने का मन बनाया। ढाबे से लाई रोटी पेट-भर कर खाई। ऑर्डर चार रोटी का था। लेकिन ढाबे वालों ने सात रोटियां पैक कर दी थी। खाना खा कर आनंद आ गया। हमारी ट्रेन निर्धारित समय से साढे चार घंटे की देरी से चली।

18.
पूजा स्पेशल एक्सप्रेस ट्रेन की यात्रा

दिनांक 07 नवंबर 2022 को, सांय 18:30 बजे गाड़ी संख्या 01673 ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ वाराणसी से दिल्ली के लिए जानी थी। जिसके पूरे रास्ते में सिर्फ पाँच ही स्टॉपेज थे। ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ ट्रेन की सवारी करने को हम बहुत उत्सुक थे। हों भी क्यों नहीं? इसके नाम में स्पेशल जो जुड़ा था। हम पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे कि नाम स्पेशल है तो बाकी ट्रेन से कुछ अतिरिक्त होगा।
गाड़ी संख्या 01673 ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ निर्धारित समय से चार घंटे देरी से, वाराणसी रेलवे-स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 08 पर आ गई। उतरने वाली सवारी उतारी। दिल्ली जाने के लिए सवारियाँ चढ़ी। हम भी ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ के ‘एस2’ में सवार हो गए। ‘एस2’ में 25, 26, 27 व 28 नंबर सीट हमारे लिए आरक्षित थी। हमने सीटों के ऊपर नीचे यथासंभव बैग व अन्य सामान रखा। गाड़ी संख्या 01673 ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ वास्तव में ही ‘स्पेशल’ ट्रेन तो थी। लेकिन हमारी अपेक्षा के अनुरूप स्पेशल नहीं थी। इस ट्रेन में एक भी प्लग काम नहीं कर रहा था। ताकि अपने स्वीच ऑफ मोबाइल को चार्ज किया जा सके। हमारे पास तीन मोबाइल फोन, तीनों की स्थिति विश्वासमत खोए राजनीतिक दलों जैसी। ऐसे में मोबाइल को चार्ज करें तो कैसे करें। यह यक्ष-सवाल बन कर खड़ा था। आजकल मोबाइल स्वीच ऑफ तो मानो जीवन ही रुक-सा गया प्रतीत होता है। ट्रेन से लेकर चांद, तारों व ग्रहों तक की चाल व गति, मोबाइल ही बताता है। तापमान, मौसम का हाल-चाल, किसका जन्मदिन कब, किसकी सालगिरह कब, देश-दुनिया में क्या कुछ घटा या बढ़ा सब कुछ मोबाइल ही तो बताता है। समय तिथि, वार सब कुछ मोबाइल ही बताता है। बहुतों को यह भी मोबाइल ही बताता है कि उसने क्या खाना है, क्या पीना है। इंसान, मोबाइल को संभाल कर रखता है और मोबाइल इंसान को। क्या करते? वही हुआ जो मंजूर-ए-स्पेशल ट्रेन को था। गाड़ी संख्या 01673 ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ प्रत्येक छोटे-बड़े स्टेशन से पहले ही आउटर पर खड़ी हो जाए। प्रत्येक आने-जाने वाली सवारी व मालगाड़ी के गुजरने के बाद स्पेशल ट्रेन को चलाया जा रहा था। किसी-किसी स्टेशन पर तो तीन-तीन ट्रेन निकाली गई। पूरी रात गुजर गई। सुबह उठे अपने ‘एस2’ से निकल कर आस-पास की अन्य बोगियों के सभी प्लग टटोल-टटोल कर देखे। बड़ी मुश्किल से एक प्लग मिला। जहाँ मोबाइल चार्ज लगाया।
गाड़ी संख्या 01673 ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ की यात्रा यूं भी स्पेशल रही। एक तो इस ट्रेन ने सवारियों अपने गंतव्य पर निर्धारित समय से साढे बारह घंटे देरी से पहंचाया। साथ में पूरे सफर में नमकीन दाल, पानी की बोतल, अन्य खाद्य सामग्री या पेय पदार्थ विक्रेता नहीं आया। अपने साथ बनारस से खरीद कर लाए जैम की बोतल तो वाराणसी के रेलवे-स्टेशन पर ही गिरकर टूट गई थी। ब्रेड के पैकेट खोले तो वे भी फफूंदी लगे निकले, वे भी फेंक दिए। थोड़े-से खीरे-सेब खाकर 27 घंटे के सफर में उबाऊ वक्त गुजारना पड़ा। मात्र एक ही विक्रेता आया जो तम्बाकू, जर्दा, खैनी इत्यादि की पुड़िया बेच रहा था। शौचालयों का बुरा हाल। प्रत्येक बोगी की जर्र-जर्र हालत देख कर, लग रहा था कि शायद यह, इस ट्रेन का अंतिम चक्कर है। उसके बाद इसे सेवा निवृति दी जानी है। थके-हारे, भूखे-प्यासे सभी का बुरा हाल था।
गाड़ी संख्या 01673 ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ का दिल्ली पहुंचने का निर्धारित समय दिनांक 08 नवंबर 2022 को दोपहर के एक बजे था। लेकिन इसने हम दिल्ली पहुंचाए दिनांक 09 नवंबर 2022 को, रात्रि के 01:30 बजे। गाड़ी संख्या 01673 ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ की स्पेशल यात्रा ताउम्र याद रहेगी।

19.
‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ की यात्रा के बाद

गाड़ी संख्या 01673 ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ ने हमें अपने निर्धारित समय से साढे बारह घंटे देरी से दिल्ली पंहुचाया। पहुंचना तो था दिनांक 08 नवंबर 2022 को दोपहर के 13:00 बजे। लेकिन हम पहुंचाए 09 नवंबर 2022 को रात्रि के 01:30 बजे। देरी से पहंचने के कारण हमारा दिल्ली से टोहाना के सफर का तय प्लान चोपट हो गया। अब हमारे पास दो विकल्प थे। एक विकल्प तो यह था कि नई दिल्ली रेलवे-स्टेशन से पंजाब मेल से आगे का सफर पूरा किया जाए। पंजाब मेल चार घंटे देरी से आ कर। सुबह के 04:05 बजे नई दिल्ली से चलनी है। दूसरा विकल्प यह था कि सफदरजंग रेलवे-स्टेशन से ‘पतालकोट एक्सप्रेस’ में टोहाना तक का सफर तय किया जाए। ‘पतालकोट एक्सप्रेस’ सुबह के 07:00 बजे सफदरजंग से चलनी है।
हमने तय किया कि हम ऑटो लेकर सफदरजंग रेलवे-स्टेशन पहुंच कर, वहाँ से सुबह के सात बजे चलने वाली पतालकोट से टोहाना जाया जाए। मैंने एक ऑटो चालक से बात की। सफदरजंग रेलवे-स्टेशन जाने के लिए उसने चार सौ रुपए मांगे। मैंने 400/- रुपए देने तय कर लिए। हम ऑटो में सवार होकर चल पड़े। ऑटो चल पड़ा। थोड़ा चलते ही ऑटो-चालक पूछ बैठा कहाँ जाओगे? हमने बताया कि सफदरजंग रेलवे-स्टेशन से टोहाना के लिए सुबह 07:00 बजे चलने वाली ‘पतालकोट एक्सप्रेस’ पकड़नी है।
चालक ने कहा कि आप नई दिल्ली के रेलवे-स्टेशन से ‘पंजाब मेल’ से क्यों नहीं चले जाते? मैंने पूछा कि ‘पंजाब-मेल’ मिल जाएगी? उसने कहा कि क्यों नहीं मिलेगी? उसने अपने मोबाइल से ‘पंजाब मेल’ का रनिंग स्टेटस देखा और बताया कि ‘पंजाब मेल’ आपको आराम से मिल जाएगी। नई दिल्ली रेलवे-स्टेशन चलने के दौ सौ रुपए में ही ले चलूंगा। मैंने कहा ठीक है चलो नई दिल्ली रेलवे-स्टेशन ही ले चलो। उसने कश्मीरी गेट से लाल किले के सामने से होते हुए, जल्द ही नई दिल्ली के रेलवे-स्टेशन पर पहुंचा दिया। सुबह के लगभग तीन बजे थे। नई दिल्ली का रेलवे-स्टेशन बिल्कुल सुनसान था। हमने ऑटो का किराया चुकाया। ‘पंजाब मेल’ की टिकट ली और प्लेटफार्म नंबर 03 पर ट्रेन का इंतजार करने लगे।

20.
पंजाब मेल से वापसी

भारत में ट्रेन का लेट आना कोई खास बात नहीं। आज दिनांक 09नवंबर 2022 को पंजाब मेल भी अपने निर्धारित समय से चार घंटे देरी से आई। इसके देरी आने के कारण ही, यह ट्रेन हमें सुबह 04:05 बजे मिल गई। अगर यह सही समय पर आती तो हम इसमें सफर नहीं कर पाते। पंजाब मेल में दो जनरल बोगी इंजन के साथ तथा दो बोगी पीछे थी। हमने पीछे वाली बोगी में सफर करना तय किया। क्योंकि जब ट्रेन टोहाना के रेलवे-स्टेशन पर पहुंचती है तो ट्रेन के पिछले डिब्बे टोहाना के रेलवे स्टेशन के बिल्कुल सामने आते हैं। बाकि सब आगे विपरीत दिशा में चले जाते हैं। ट्रेन में संभावना के अनुरूप पूरी भीड़-भाड़ थी। हमने सब से पहले तीनों बैग उपयुक्त स्थान पर रखे। एक सवारी उतर रही थी। उसने जो सीट खाली की, वहाँ मेरी जीवन संगिनी मीना रानी और बेटी लाक्षा रानी बैठ गई। सीट के अभाव में बड़े बैग पर अनमोल को बैठा दिया। वहीं किसी की आनाज की आधी-भरी बोरी रखी थी। मैंने बोरी पर बैठना चाहा। तो बोरी के मालिक ने बैठने मना कर दिया। मैंने खड़े-खड़े ही सफर करना तय किया। दस-पंद्रह मिनट बाद बोरी का मालिक कहने लगा कि हमने शकूरबस्ती के रेलवे-स्टेशन पर उतरना है। हमारी सीट ले लीजिएगा। चंद मिनट में जल्द ही शकूरबस्ती का रेलवे-स्टेशन आ गया। बोरी के मालिक और मालकिन ने सामान उतार लिया और संवयं भी उतर गए। जाते-जाते हमारे लिए सीट खाली कर गए। मैं और बेटा अनमोल, उनके
द्वारा खाली की गई सीट पर बैठ गए।
हमारा चारों का ‘पूजा स्पेशल एक्सप्रेस’ के लम्बे व उबाऊ सफर व रात की नींद के कारण थक-हार कर बुरा हाल हो चुका था। मन कर रहा था कि सीट पर लेट कर सफर तय कर लें। लेकिन इस जनरल वार्ड में यह सब कहाँ संभव? यहाँ पर बैठने को सीट मिल गई, यह भी गनीमत है। लगभग साढे आठ बजे पंजाब मेल ने टोहाना के रेलवे-स्टेशन पर पंहुचा दिए।

21.
रेलवे-स्टेशन से घर

टोहाना के रेलवे-स्टेशन से बस-स्टैण्ड तक पहुंचने के लिए ऑटो तैयार खड़े रहते हैं। जो आज भी तैयार थे। हमने अपने बैग ऑटो में रखे और स्वयं भी ऑटो में सवार हो लिए। कुछ ही समय में चंडीगढ़-हिसार रोड़ से होते हुए ऑटो वाले ने बस-स्टैण्ड टोहाना पहुंचा दिए। अन्य सवारियाँ तो बस-स्टैण्ड पर उतर गई। हमने अपना सामान नहीं उतारा। ऑटो-चालक से निवेदन किया कि भाई-साहब सामान अधिक है। घर तक छोड़ आओ। जो आपका बनेगा वो दे देंगे। उसने कहा कि इतना समय तो नहीं है। कहाँ छोड़कर आना है? हमने उसे बताया कि डांगरा रोड़ पर थोड़ा-सा चलकर लघुसचिवालय से पहले ही। हमारी परेशानी देख कर उसने कहा कि चलो छोड़ देता हूँ। कुछ ही समय में उसने हम घर पहुंचा दिए। हमने किराया चुकाया। चाय के लिए पूछा। उसने समय के अभाव के कारण चाय पीने से मना कर के विदा ली।
घर पहुंचते ही सबसे पहले रफा-हाजत से फारिग हुए। उसके बाद नहाए। मैं नहाया तब तक मेरी जीवन-संगिनी ने खाना तैयार कर दिया। हालांकि थकी हुई तो वह भी थी। खाना खा कर सो गए। सारा दिन सो कर, उठने के बाद महसूस हुआ कि हम मानव जोनी में ही हैं।

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