मेरी प्रतिभा
मेरी प्रतिभा तू मेरे ऑंगन की दीपशिखा बन जा।
मुझे तू उन्मत्त बना इस जीवन की मदिरा बन जा।।
उर क्रन्दन करता है मेरा विश्वासों की टूटन से,
विलग नहीं कर सकती मैं खुद को रस्मों के बंधन से,
मेरे उर के आसव तू अब क्रांति की सरिता बन जा।
मेरी प्रतिभा तू मेरे ऑंगन की दीपशिखा बन जा।।
मुझ में जो उल्लास भरा है बड़े-बड़े जज्बातों से,
पर अवसाद जीत ना पाए जीवन के उन्मादों से।
मेरे उर की ज्ञान ज्योति भ्रम तमस की हरिता बन जा।
मेरी प्रतिभा तू मेरे ऑंगन की दीपशिखा बन जा।।
अगम सिंधु जल राशि ना सूखे रवि की तीव्र तपन से,
मरू असीम की प्यास बुझे ना जलद के जल वर्षण से,
मेरी तृष्णा तू मेरे जीवन की जिजीविषा बन जा।
मेरी प्रतिभा तू मेरे ऑंगन की दीपशिखा बन जा।।
जीवन भार बने ना जग के कटु तीक्ष्ण प्रहारों से,
वीणा का स्वर रुद्ध ना हो कसे या ढीले तारों से,
मेरे अंतस्थल की पीड़ा तू मेरी कविता बन जा।
मेरी प्रतिभा तू मेरे ऑंगन की दीपशिखा बन जा।।
कैसे मैं प्रतिबिंब निहारूं टूट गया जग का दर्पण,
मुझ पर कुछ भी शेष नहीं किया सब कुछ मैंने अर्पण,
हृदय कोष की असह्य रिक्तता तू संचित निधि बन जा।
मेरी प्रतिभा तू मेरे ऑंगन की दीपशिखा बन जा।।
_प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)