मेरी पहली हास्य कविता
मेरी पहली हास्य कविता
बहना का आदेश हुआ कल, हास्य की कविता पढ़नी ही है।
मन में सोचा आए न आए, चुरा चुरु के गढ़नी ही है।।
उठा डायरी पकड़ कलम, पहले शब्द का मुहुर्त हुआ।
तभी देखा घर में हो रहा है, मिर्च की धांस का धुंआ।।
पतिदेव आए भन्नाते, छूटते ही बम दागकर बोले।
अरी भागवान आज फिर, जला दिए क्या तुमने छोले।।
मुई इस याददाश्त का क्या करूँ, मैं थोड़ा सा सकपकाई।
जाकर देखा तो तब तक कोयला, हो चुकी थी पूरी कढ़ाई।।
यह कविता गढ़ना छोड़ कर, दोबारा
से बनाओ छोले।
अब तो पतिपरमेश्वर की आँखों से, आग बरस रहे थे शोले।।
तनिक रुके फिर गुर्राए, करना चाहा नया फरमान जारी।
अब बारी थी मेरी बोली, पत्नी हूँ दासी नहीं तुम्हारी।।
एड़ियाँ घिस गईं ज़िन्दगी भर, उठा न पाई कभी कलम।
अब बहुत हुआ जी गाएंगे, नाचेंगे खूब गढ़ेंगे कविता हम।।
बोले मैं तो सिर्फ कह रहा था, कि बाद में तलना भटूरे।
जो जंचे सो करो कहकर भागे, मैं जा रही थी उनको घूरे।।
बाहर भागने की हिम्मत न करो, क्रोध को करो ज़रा सा डाउन।
प्रिय पतिदेव जी सारे शहर में, लगा हुआ है अभी लाॅकडाउन।।
न जाने क्या हुई प्रभु कृपा, क्या हुआ था चमत्कार हाय।
अचानक देखा पीछे पति जी, लिए खड़े थे ट्रे में दो चाय।।
प्यार से बोले क्या लिखा है प्रिये, ज़रा हमें भी तो सुनाओ।
कागज़ आगे किया तो बोले, ऐसे नहीं तरन्नुम में गाओ।।
हम तो हो गए मंत्रमुग्ध, तंद्रा तोड़ कर काटी चिकोटी।
अजी तो हम बन गए कवयित्री, खुद पर हमने कसी कसौटी।।
होकर खुशियों से सराबोर, लगाया ख्वाबों के सागर में गोता।
क्योंकि मेरी हास्य कविता को, मिल गया था पति जैसा श्रोता।।
मिल गया था पति जैसा श्रोता।।
रंजना माथुर
अजमेर राजस्थान
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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