मेरा महबूब अपने हाथ में ख़ंजर लिये बैठा
बह्र-हज़ज मुसम्मन सालिम
ग़ज़ल
मेरा महबूब अपने हाथ में ख़ंजर लिये बैठा।
तो मैं भी हाथ में अपने ये अपना सर लिये बैठा।।
करूं कैसे भला मैं प्यार का इजहार अब उससे।
ज़ुबां पर तल्ख़ लफ्ज़ों के वो जब नश्तर लिये बैठा।।
ये मेरे दिल के आईने में सूरत यार की देखी।
तभी से ये ज़माना हाथ में पत्थर लिये बैठा।।
करेगा पार दरिया को भला वो शख़्स तो कैसे।
जो दिल में डूब जाने का हमेशा डर लिए बैठा।।
मदद फरमा मेरे मौला “अनीश” अब ज़ंग में तन्हा।
मेरा दुश्मन मुकाबिल मेरे तो लश्कर लिए बैठा।।
@nish shah