मेरा मन !!
देवी और सज्जनों आप सभी को मेरा नमस्कार ! आप सभी का आभार प्रकट करते हुए वन्दन एवं अभिनन्दन करता हूँ ! सादर अभिवादन करता हूँ! मेरे प्यारे मित्रों ! मैं कोई कवि व लेखक नहीं हूँ ,कवि व लेखक तो न जाने किस सोच के सागर मे डूब कर न जाने कैसे-कैसे मोती निकाल लेते है? फिर भी मैं जो कुछ लिखता हूँ ,वह मेरे अन्तरात्मा की घुटन होती हैं जो आप लोगों के बीच रखकर मुझे बहुत ही शान्ति का अनुभव होता है। मेरा कलम अपना विचार उसी पर लिखता हैं , जिसे हम प्राय: अपने इर्दगिर्द घूमता हुआ देखते हैं । ये रचना मैं आप लाेगो के बीच निवेदित करता हूँ ,,,
मेरा मन!!
———————
न जाने क्यों मेरा मन व्यथित हो उठता हैं यह देखकर ?
जिस नवजवानो से आशा कि एक दीप जलाए बैठे थे,
जिसे देश का गुरुर व नीव मान बैठे थे,
जब इनके सपने को देखता हूँ शराब की बोतलों मे खनकता हुआ देखकर,
इनके ख्वाबों को देखता हूँ धूम्रपान की धुंए मे उड़ते हुए देखकर।
जिस माँ ने अपने लाल को सीने से सीचा, अपने आँचल मे पाला,
उसके लाल को गन्दे नाली में पड़ा हुआ देखकर।
न जाने क्यों मेरा मन व्यथित हो उठता हैं यह देखकर ?
जिस माँ शब्द कि परिभाषा नहीं , उस माँ कि गाली हर नवजवान कि जुबा पर देखकर,
जिस रक्षाबंधन पर बहन कि मान-मर्यादा कि कसमें खाये ,
उस बहन कि गाली हर नवजवान के जुबा पर देखकर।
न जाने क्यों मेरा मन व्यथित हो उठता यह देखकर?
बूढें पिता को तेज बारिश में,भरी सड़क पर जिम्मेदारी के बोझ से लदे हुए, रेलगाड़ी पकड़ते हुए देखकर,
बूढ़ी माँ को दूसरे के घर चौका-बर्तन करते हुए देखकर।
न जाने क्यों मेरा मन व्यथित हो उठता यह देखकर?
बूढ़े माँ-बाप को जवान बेटी कि विवाह के चिंता मे, दहेज कि आग मे जलते हुए देखकर।
बूढ़े पिता को साईकिल रिक्शा खीचते हुए,
उस पर नवजवान को सवार होता हुआ देखकर।
न जाने क्यों मेरा मन व्यथित हो उठता यह देखकर?
किसी नवजवान को वासना से लिप्त, भरी हुई सड़क पर देखकर,
किसी भूखे-नंगे गरीब बच्चे को फुटपाथ पर बैठे, आशा कि एक दीप जलाए देखकर।
न जाने क्यों मेरा मन व्यथित हो उठता यह देखकर?
ऐसे नर नही ”नरपशु ” हैं , धिक्कार है इन्हें इस धरा पर ,
कोई अधिकार नहीं है इस धरा पर ।
न जाने क्यों मेरा मन व्यथित हो उठता यह सब देखकर?
– शुभम इन्द्र प्रकाश पाण्डेय
ग्राम व पोस्ट कुकुआर, पट्टी , प्रतापगढ़ , उत्तर प्रदेश