” मेरा बचपन “
छोड़ आया मैं अपना बचपन, जहाँ हर दिन था खुशियों का त्यौहार ,
उस खिलखिलाती बसंत का मैं, था इक गुनगुनाता सितार ।
भाते न थे मुझे बनावटी खिलौने, माटी से ही खेलता था ,
पूर्वजों द्वारा निर्मित भवन में, सुबह शाम मैं डोलता था ।
दादाजी का ‘मिट्ठू’ था मैं, उनकी आँखों का तारा था ,
थी पिता के कन्धों की सवारी, और माँ का राजदुलारा था ।
जब बिन बात पर रोता था , तब माँ का आँचल ढूँढता था ।
मैं धूप, बारिस, आँधी न देखता था, जब सुबह से शाम तक खेलता था,
हरपल आकांक्षाओं का मेला, चिंतारहित वह बचपन मेरा,
सबको हँसना सबको चिढाना, कितना अनमोल था वो बचपन मेरा ।
चार वर्ष की नन्ही उम्र से ही, पिता के साथ रहता था ,
‘सरस्वती शिशु मन्दिर’ में मैंने , कलम चलाना सीखा था ।
नन्ही कोमल उंगलियों से जब , भाई का हाथ थामा था ,
एक दूसरे का हाथ थामकर , विद्यालय आना जाना था ।
काश! पाँच वर्ष का ही रहता मैं , जैसे सनत्कुमार थे ,
बड़ा होकर बड़ा बनने की , मन में मेरे विचार थे ।
बढती उम्र के साथ मैंने अपना निर्मल जीवन भी खो दिया ।
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर हे ईश्वर मैं न जाने क्यों बड़ा हो गया ?
– अमित नैथाणी ‘मिट्ठू’ ( अनभिज्ञ )