मेरा अब्दुल
लव जिहाद में फंसी बच्चीया, यही सोचती हर पल है।
मेरा अब्दुल अच्छा है, और मेरा अब्दुल लिबरल है।।
लव जिहाद में फसने पर, फिर घरवालों से लड़ने पर।
अब्दुल का चेहरा दिखने पर, अब्दुल का कहर बरसने पर।।
फिर घरवालों की याद सताती, और काम नहीं कुछ आता है।
सिसकी आंसू रोना-धोना, और घर का कोना मिल जाता है।।
यही नियति बनती तेरी, चुपचाप रहे और हर दर्द सहे।
कहने को ना फिर कोई रहे, डर डर के बस तू दर्द सहे।।
तब याद धर्म की आती है, पर देर बहुत हो जाती है।
फिर अब्दुल रूप दिखाता है, और काट फेंक कर आता है।।
कटना पिटना और मौत मिले, फिर बात यूंही दब जाती है।
फिर नया शिकार मिल जाता है, अब्दुल अच्छा हो जाता है।।
कहीं कमी है अपनी भी तो, जो धर्म से अपने दूर रहें।
शास्त्रों का ज्ञान नहीं रखते, शस्त्रों से अपनी दूर रहें।।
क्यों जनमानस को हम अपने, निंद्रा से नहीं जगाते हैं।
जननी को यूंही कटवाते हैं, और चैन से हम सो जाते हैं।।
उठो हिंदुओं की माता बहनों, ज्ञान का रूप दिखलाओ तुम।
हाथों से निकली पापा की परियां, उनकी लाज बचाओ तुम।।
तुम जागी तो धर्म बचेगा, और धर्म बचा तो देश बचेगा।
तुमको माफी नहीं मिलेगी, बेटी पोती नहीं मिलेगी।।
आँचल से अपनी दूर किया, ममता से अपनी दूर किया।
अनपढ़ होना बेहतर है, शिक्षा पर इतना जोर दिया।।
बोटी बोटी कर जाते हैं, और कुत्तों को खिलावाते हैं।
मार के अपने हाथों से, फिर घर में दफन कराते हैं।।
लव जिहाद में फसी बच्चियां, यही सोचती हरदम है।
मेरा अब्दुल अच्छा है, और मेरा अब्दुल लिबरल है।।
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“ललकार भारद्वाज”