मृत्यु – मृतक की ज़ुबानी
एक पल में सुन्न पड़ा शरीर,
थी इर्द – गिर्द कुटुम्भ की टोली।
इस उम्मीद में थे शायद,
के में बोल पडूँ एक बोली।
थे कर रहे जतन वो,
मेरे फिर बोल उठने की आस में।
मगर केवल में और आधिपति जानते थे,
कि अब बात न रही थी हाथ में।
जब न हुआ भरोसा, खुद पर उन्हें,
तब चल पड़ी टोली ले कर,
इंसानी भगवान के दर।
की पुष्टि उन्होंने जब,
तब पड़ा पहाड़ – आंधी सर।
तब कुछ हिम्मत रखे और कुछ रो कर,
चल पड़े लिए काँधे पर।
याद कर अच्छाइयां मेरी,
चल रहे टेकते सर।
अब जाने किस रूप में, जन्म लूँ में,
जाने किस घर।
मगर है यकीन की याद कर,
रोयेगा मेरा पिछला घर।