मूरत
रंग बिरंगी सुंदर मूरत,
सजी धजी बेजान सी,
क्या जाने किस घर जाएगी,
ओढ़े कपट की परिधान सी।
सजा कर ले जाएगा कोई,
धर हाथ वचन खाएगा वो,
जीने मरने के क़समों से,
पूरे जीवन का हिसाब होगा,
फिर किसी दिन जिंदा जला,
मैला दामन किया जाएगा,
या फिर मिट्टी की तरह,
मसल कर जज़्बात रख,
कुरेद कर निस्वास होगा,
तन-मन को कैद कर,
बेड़ियों में रखा जाएगा।
चीत्कार करती आत्मा,
ना किसी को दिखाई देगा,
प्राण ऐसे ही निकल जाएगा,
अस्तित्व का ना मोल कोई,
ना कभी किसी को भान थी,
मौक़ा बस शोषण का,
हमेशा ढूंढा जाता रहेगा।
बाज़ार से दिल लगाने,
फिर नई मूरत लाई जाएगी,
उस मूरत को फिर नव रूप में,
नव परिधान में सजाया जाएगा।
सम्मान मिलेगी बस तेरे,
उस बेजान रूप को,
‘देवी’ मान जिसे घर के,
मंदिर के किसी कोने में,
पूजा कर सजाया जाएगा।
उसकी भी सम्मान नीलाम होती,
अगर उसकी भी ज़ुबान होती,
भावना को मसला जाता दिन-रात,
अगर उस मिट्टी में जान होती।