मूकनायक
मूकनायक बनकर कोई चल पड़ा है…
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मूकनायक बनकर कोई चल पड़ा है,
मूकदर्शक अब हमें रहना नहीं है….
सोचने का समय नहीं है, घर से निकलो,
मार्गदर्शक बनना है तुमको,स्वांग बदलो।
बेसबब बढ़ता गया जो जुर्म,
सहने की आदत पड़ी थी,
बेबसी का आलम हर तरफ,
रहनुमाओं की चुप्पी पड़ी थी।
कांपती है तब धरा, जब जुल्म बढता,
मौन रहकर ,जुल्म अब सहना नहीं है।
मूकनायक बनकर कोई चल पड़ा है,
मूकदर्शक अब हमें रहना नहीं है….
साम्राज्य था अपराधियों का,
सत्ता की गांठे पड़ी थी,
सींचकर लहू से धरा को,
झूठ की बांछें खिली थी।
गूंजता था चीख पथ पर,
आतंक की कालिख लगाए ,
अन्याय से उपजी निराशा,
अतीत में कितनी घनी थी।
उतरे हैं अब जो आदियोगी,नभ से धरा पर,
साथ चलकर अब तो दौड़ो,तुम भी यहाँ पर।
आएं हैं प्रभु इस धरा पर,
दुष्टों का ही संहार करने ,
अगवानी करने साथ आओ,
युग संधि का खाका खड़ा है।
मूकनायक बनकर कोई चल पड़ा है,
मूकदर्शक अब हमें रहना नहीं है….
मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ३० /०४ /२०२३
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विक्रम संवत २०८०
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