मुक़द्दर से अपने शिकायत न होती
तेरे गेसुओं की जो चाहत न होती
मुक़द्दर से अपने शिकायत न होती
अगर आपसे ये रिफ़ाक़त न होती
ज़माने की हमसे अदावत न होती
अगर आप हमसे मिले भी न होते
न बदनाम होते फ़ज़ीहत न होती
अगर ये जहाँ साथ देता हमारा
कभी हमने की भी बग़ावत न होती
सुकूं भी न छिनता नहीं चैन जाता
अगर इस जहाँ में मोहब्बत न होती
न जाते कभी छोड़कर आप हमको
ग़मों की अकेले में दावत न होती
मुसीबत गवारा है आए भी बेशक़
मगर आपकी ये बदौलत न होती
निभाना रहा है सदा से ही मुश्क़िल
है आसान कहना के चाहत न होती
हुए हाथ पीले जो हैं ख़ूबसूरत
कहा उसने क्यूँ ख़ूबसीरत न होती
वो ख़ामोश था जोकि इक़रार समझा
जो ‘आनन्द’ टोके शरारत न होती
– डॉ आनन्द किशोर