मुर्गा बेचारा…
मुर्गा बेचारा
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मुर्गा बेचारा,
देशी प्रजाति का,
मस्त और इन्द्रधनुषी रंगों से सराबोर,
ऊपर में बदलाव का लाल टोपी पहने हुए,
सबके दिलों का प्यारा,
सुबह-सुबह बांग देने में,
कोई कसर नहीं रखता।
उठो मुसाफिर, जगो मुसाफिर के,
अंतर्नाद से,
सभी जनों को चौकन्ना रखता।
मनुष्य की हर गतिविधि को,
बारीकी से परखता।
लेकिन नववर्ष की पूर्व बेला में,
कुछ दिन पूर्व से ही,
अजीब हरकतें करने लगा था वह,
शायद नववर्ष की तैयारी के लिए,
होने वाले चहलकदमियों से,
आशंकित था वो,
अब वह दाना डालने पर भी,
आंगन में नहीं आता,
सुबह की कुकड़ू-कु की आवाज से भी,
लोगों को नहीं जगाता।
सुबह-सुबह बांग देता भी क्यों भला,
अब उसे इंसानों के प्रति,
दास्ताँ-ए-मोहब्बत जुबां पर,
आ ही नहीं रही थी ।
दिन भर और रात को भी,
आंगन किनारे,
अमरूद की पेड़ पर बैठा रहता,
और लोगों द्वारा पीछा करते ही,
उड़कर दूसरे पेड़ पर चला जाता,
वो सहमा था इसलिए कि,
नववर्ष बीत तो जाए,
तो फिर उसके बाद से,
जीवनचर्या को सही कर लूंगा।
लेकिन उसका पालनहार भी,
नववर्ष की खुशी के लिए
उसके नर्म गोस्त से,
अपनी जिह्वा को आनंदित करने के लिए,
सब दाव पेंच आजमा रहा था।
पुराने वर्ष के अंतिम तिथि को,
एक साथ चार जनों ने साथ मिलकर,
लंबे जद्दोजहद के बाद,
उस मुर्गे को कैद किया,
फिर नववर्ष पर मुर्ग-मुस्सलम में,
तब्दील हुआ था वह।
क्योंकि था तो,
वह मुर्गा बेचारा,
नववर्ष का मारा।
अब सभी जन,
पूरे नये साल सोते रहो,
क्योंकि जगाने वाला तो,
गया काम से ।
क्योंकि आज के युग में,
जिसने भी दूनियां को,
जगाने का काम किया है,
उसका यही हाल हुआ है।
(सच्ची घटना पर आधारित)
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०१ /०१/ २०२२
कृष्ण पक्ष, त्रयोदशी , शनिवार
विक्रम संवत २०७८
मोबाइल न. – 8757227201