मुन्नी का सपना
“निकाल पैसे मुझे दे वरना “….
“सारे पैसे तुम्हें दारू के लिए कैसे दे दूँ। अनाज पानी ईंधन कहां से लाऊँ” ……
माँ मार खाते हुए सिसक कर धीरे से बोली।
” जबान बहुत खुल गई है तेरी.”…….
कहते हुए बाबा ने चूल्हे की जलती लकड़ी से मां को पीटना शुरू कर दिया।
जब माँ मजदूरी पर जाती थी तब माँ के साथ मुन्नी भी जाती थी। पिता को उसने कभी काम पर जाते हुए नहीं देखा।
जब शाम को घर आते तो माँ बहुत ही थकी होती । बावजूद इसके पिताजी आराम करते शराब का नशा करते परन्तु थकी हारी माँ को आराम की अनुमति नहीं थी। वह पहले तो पिताजी के अपशब्दों व मार का शिकार होती और फिर घायलावस्था में खाना पका कर सबको खिलाती। यही हर रोज की दिनचर्या माँ की थी। कभी-कभी जब मुन्नी माँ की तरफ बोलने की कोशिश करती तो वह भी पिता की कोपभाजन बन जाती।
यह सब देखकर मुन्नी बहुत दुखी होती।
वह हमेशा माँ से यही वादा करती – “मां में तुम्हें एक दिन इस दलदल से बाहर जरूर निकालूंगी।” यही उसका भविष्य का सपना था कि मां को इस नर्क से दूर ले जाए। बच्ची धीरे-धीरे बड़ी होती जा रही थी। अब वह कक्षा आठ की विद्यार्थी थी। उसके साथ पढ़ने वाली नेहा उसकी सहेली बन गयी थी जिसके पिता एडवोकेट सक्सेना थे। उसके यहाँ वह कभी-कभी पिता से छिप कर चली जाती थी।
उस दिन वह नेहा के घर में घुस ही रही थी कि उसने देखा नेहा के पिता एडवोकेट सक्सेना अंकल घायलावस्था में बैठी एक आंटी को उनकी बात सुनकर दिलासा दे रहे थे और उसके पति को घर की स्त्री को बेवजह सताने पर कानून के द्वारा सज़ा दिलाने की बात रहे थे।
यह सुनकर मुन्नी को मां के दुखों के सागर में किनारा नजर आने लगा। उसका सपना पूरा होने जा रहा था मां को दलदल से निकालने का। अब सही समय मुन्नी के सामने था। वह दिल को मजबूत कर पिताजी की शिकायत लिखवाने की तैयारी करने लगी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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