मुझे याद🤦 आती है
मुझे याद है,
जब घर में जरूरत हुई,
तो पहले छत,
बदली गई पराल की,
बरसात के टप – टप,
से सुरक्षा के लिए।।
फिर ,
बैठक हुई,
जरूरत की तराजू ने,
तोला,
दादा – पापा के चप्पलों को,
बदली गई,
बद्दियां ,
उनकी कई बार की ,
टूटी थी जो,
मोमबत्ती से जुड़ी कड़ी।।
मुझे याद है कि
त्यौहारों पर मिलते,
जरूर थे,
कपड़े जरूरत के नए,
पर ,
कपड़े कभी भी,
सेवामुक्त नहीं होते थे ,
घर के।।
मुझे याद है कि
पहले बाहरी पहनावा,
सीमित हुआ,
बाद के,
घरेलू प्रयोगों में,
आता था काम,
घर बैठे दादा – पापा के,
वे पहनते थे,
जरूरत तक।।
मुझे याद है कि
फिर स्तर घटता,
कपड़े का,
उसे पहनकर,
पापा – चाचा ,
उठाते थे,
खाद खेतों में,
बिखेरने जाते थे,
गोबर – बराबर।।
मुझे याद है कि
भारी बोरी,
गेहूं की भी,
ढोने के काम आता,
पीठ रखकर,
मैंने देखा मां,
तसले में ढोते वक्त,
सिर का रक्षक,
बनाती थी,
वही कपड़ा,
जरूरत का।।
मुझे याद है कि
वही कपडा,
मां के हाथों में,
बनता था,
पोंछने वाला,
पोंछा,
उसी से खिड़की भी,
बिखरा तेल और
कभी – कभी,
पानी भी पोंछा जाता था।।
मुझे याद है कि
बर्तन पुराने ,
भले हो जाएं,
जैसे कपड़े और चप्पलें,
पर उनको भी,
अमल में लाना ,
घर जानता था बखूबी।।
मुझे याद है कि
नए और वजनदार,
बर्तन बनते थे,
शान दादा की,
घर आए मेहमान की,
पापा और मां की।।
मुझे याद है कि
हमें तो,
भैया – दीदी,
बहन,
सबका भाग,
खेत जैसे,
एक ही थाली में ,
खाना में ,
बनाकर खाने,
खींचकर दो रेखाएं ,
चार भागों में ,
बांट देती मां,
रेखागणितज्ञा।।
मुझे याद है कि
खूब खाकर,
तंदुरुस्त शरीर को,
दुरुस्त करने की,
कुछ जरूरत की ,
बैठक बैठी,
फुर्सत में तो,
जिक्र हुआ ,
जरूरत में,
साइकिल का ।।
मुझे याद है कि
दादा के ओहदे में,
बड़प्पन को मानी,
गई, जरूरत ,
तब आई मेरे,
कद के तीन जोड़ की,
ऊंची साइकिल।।
मुझे अब याद नहीं,
तरस आती है,
पापा की साइकिल,
मम्मी की स्कूटी,
मोटर वाली,
अपनी रेंजर ब्रांड की,
आधुनिकता पर।।
तनिक ठेस से ,
स्क्रैच खाने वाली,
फिर ,
कद – वजन में,
दादा की साइकिल से,
कम जोर वाली,
विफल ।।
इसलिए मुझे समझ आता है,
ये सब जरूरत नहीं ,
शौक है,
इस दौर के,
फलत: ,
इनसे जुड़ती नहीं याद।।