मुझे ना पीना मैं निःसार हूँ!
मुझे ना पीना मैं निःसार हूँ
मैं काटों का कंठाहार हूँ
हर अभाव हर क्षत-विक्षत का
मैं चिंता का सूत्रधार हूँ
मुझे ना पीना मैं निःसार हूँ…
कुछ करने की ज्योति प्रज्ज्वलित
कितनी शांत, कितनी हैं थकित
तुम ना कहना मैं तारूँगा
नहीं किनारा फँसी धार हूँ
मुझे ना पीना मैं निःसार हूँ…
कितना घोर अभाव भरा है
मुझसे हर इंसान खरा है
मुझसे ना कुछ चुकता होता
मैं जीवन का कर्ज़दार हूँ
मुझे ना पीना मैं निःसार हूँ…
आह वेदना! तुम ही संगिनी
बिना रंग की आभ रंगिनी
रस मेरे सब धंसे रसातल
मैं झूठा सा अलंकार हूँ
मुझे ना पीना मैं निःसार हूँ…
कदम कदम पर रोज़ प्रभंजन
मैं क्या जानू, कहाँ सुदर्शन?
घर्षण वाले दो पाटों में
फसा हुआ आतप्त प्यार हूँ
मुझसे जो तुम नाता जोड़ो
तो खुशियों का दामन छोड़ो
अपने संग हर चलने वाले
अनाहतों का खुला वार हूँ
मुझे ना पीना मैं निःसार हूँ…
– नीरज चौहान
(‘काव्यकर्म’ से अनवरत)