मुझको अपना समझ के आया है
मुझको अपना समझ के आया है
कैसे कह दूँ के वो पराया है
जबकि तेरे सिवा न और कोई
क्यूँ मुझे फिर से आज़माया है
कुछ तो तन्हाइयाँ रुलाती हैं
कुछ तिरी याद ने रुलाया है
सिर्फ़ इतना सा है गुनाह मेरा
गीत उल्फ़त का गुनगुनाया है
क्यूँ लगाते अगर ख़बर होती
एक पत्थर से दिल लगाया है
उम्र गुज़री है बेख़ुदी में ही
आज तक भी न होश आया है
जिसको चाहा नहीं वो टकराया
क्या मुक़द्दर अजीब पाया है
सच तभी आ गया समझ उसको
आइना जब उसे दिखाया है
क्यूँ कहेगा कोई उसे भूला
लौटकर शाम घर जो आया है
सिर्फ़ ‘आनन्द’ की सदा सुनकर
सबसे पहले क़दम बढ़ाया है
– डॉ आनन्द किशोर