मुखौटा!
जैसे चाँद छुपा गहरे बादल में
वैसे ही चेहरे पे चेहरा हैं यहाँ
मुखौटा में छिपा कोई चेहरा
मुखौटे पे मुखौटा
और फ़िर एक और मुखौटा।
अंदर से टूटटा इंसान
रोता चिल्लाता इंसान
मुश्किल से स्वाश लेता इंसान
बस किसी तरह जीता इंसान
ऊपर से दिखाता ख़ुशी
और हँसता झूठी हंसी
जितनी ज़ोर की हंसी
उतना बड़ा ग़म छुपाता इंसान
जितना ज़्यादा चहकता
उतना ही अंदर से चोटिल इंसान
पर्दे में कैसे जीता इंसान
अकेले में रोता बिलखता
चीखता चिल्लाता इंसान।
समाज क्या बदल देता है इंसान को
उसकी भावनाओं को जकर देता है
क्या मरहम नहीं लगा सकता समाज
संतुलन के नाम पर विक्षिप्त करता समाज
क्यूँ ऐसे समाज में क़ैद है इंसान
जो इंसान की अनुभूति हिसाब से
हरकतों पर पाबंदी लगाता है
भावनाओं को व्यक्त करने पे
ज़ोर ज़ोर से हँसता समाज
इंसान की असफलताओं पे
उसे नीचा दिखाता धकेलता समाज
सिर्फ़ सुंदरता का ग़ुलाम समाज
कुरूपता को त्यागता समाज।
ऐसा दर्पण ढूँढो रे मन
जो सच्चाई दिखा सके
चेहरे के मुखौटे को हटा
असली रूप रंग बता सके
ना हो मुखौटा जहाँ
ऐसा समाज बना सके।