” मुक्ति “
“मुक्ति ”
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कराहती जिंदगी जंजीरों में जकड़ी हुई
दासता की बेड़ियां पैरों में लिपटी हुई
छटपटाती रूह हरदम क्यू अब बेबस हुई
जन्म का अधिकार है,क्या बेबसी ऐसी हुई?
बहुत हुआ शोषण अब मुक्ति की इच्छा हुई।
ग़रीबी जन्म से ही दासता शुरू हुई
सिसकती रूह रोटी को तरसती हुई
घिसटती जिंदगी पूरी ना मयस्सर हुई
एक टक देखते उसको बेबस नजरे हुई
बहुत हुआ शोषण अब मुक्ति की इच्छा हुई।
पड़ती मार चाबुक की ना रुदन होने दी गई
गलती हड्डियां तीमारदारी में सुबह शाम हुई
गलती जन्म लेना या रूढ़ियों की परम्परा हुई
झुका जो तन कमाठो सा यही फलसफा हुई
बहुत हुआ शोषण अब मुक्ति की इच्छा हुई ।
लाचारी बेबसी कहे कैसे कहीं ना सुनवाई हुई
रब से भी गिला करे क्या जमाने में रुसवाई हुई
पीढ़ियों का बंधन पाया जातियों में जकड़ी हुई
सिसकती सांसो की लड़ियां बंधन तोड़ती हुई
बहुत हुआ शोषण अब मुक्ति की इच्छा हुई ।
भटकती जिंदगी खुशी कहा गरीबों कि हुई
ना मिले कफ़न के टुकड़े ना सर पे छत हुई
जिंदगी तीमारदारी में बीती यही हकीकत हुई
आस्तित्व खुद का ढूंढा जहां में वही गुलामी हुई
बहुत हुआ शोषण अब मुक्ति की इच्छा हुई।
दासता परम्परा है या जातियों का बंधन हुई
ग़रीबी जन्म लेना ही तो कहीं ना दासता हुई
तोड़ बंधनों को दासता की जीर्ण जंजीरे हुई
मौन देखता है जहां में आज तेरी विजय हुई
बहुत हुआ शोषण अब मुक्ति की इच्छा हुई ।
“””””””सत्येन्द्र प्रसाद साह(सत्येन्द्र बिहारी)”””””””