मुक्तक
मै दिल के टुकड़ों को, लिए हाथो में फिरा हूं
ठोकर ये ख़ा के दुनिया की नज़रों से गिरा हूं
क्यों तू ना समझ पाया ये जब गिर गया था मै
मर करके_ जिया हूं सनम “जी” करके मरा हू
बिन बात_ ही बन जाए, सौ _बात सनम से
खुद जात _से हूं मै अपनी परेशान कसम से
ये दुनिया बडी जालिम है समझती नहीं हमको
कई _रात गुजारे मैने मय_खानों में गम से
✍️कृष्णकांत गुर्जर