मुक्तक
1.
तुम मुहब्बत के राहों में दर्द उठाए फिरते हो
हम दश्त ए शहर रानाई में चाक-ए-गरेबाँ सिलते हैं
~ सिद्धार्थ
2.
दिल दिया है तो उसमें मुहब्बत भी देना
चश्म दिया है तो चश्म ए शर्म भी देना
गिरे जो कोई जिंदगी के सफ़र में चलते चलते
उठाऊं चूम लूं पेशानी से इतना मुझे तौफ़ीक़ भी देना
~ सिद्धार्थ