मुक्तक
अँधेरे रास क्या आते उदासी सह नहीं पाया।
तुम्हारे बिन गुज़ारीं रात तन्हा रहह नहीं पाया।
मिला धोखा मुहब्बत में नहीं उम्मीद थी जिसकी-
गिला,शिकवा, शिकायत को कभी मैं कह नहीं पाया।
बैर, नफ़रत सा नहीं बदरंग होना चाहिए।
प्रीत रस मन घोलकर हुड़दंग होना चाहिए।
रँग गई सरहद लहू से आज अपनों के लिए-
देह से उतरे नहीं वो रंग होना चाहिए।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर