मुकाम तक जाती हुईं कुछ ख्वाइशें
मुकाम तक जाती हुईं कुछ ख्वाइशें
मुकाम तक जाती हुई कुछ ख्वाइशें
रूबरूँ होती है, हक़ीक़त से
थपेड़े खा ज़माने के
धूल में लिपटी हुई
जब पहुँचती है , मुकाम तक
धूमिल सी होती है मुस्कान
एक अदब नक़ाब ओढे हुए
मंज़िल तक आते आते
बेमानी सी हो जाती है
चलो कुछ कर इनके मायने बदले
कुछ नया करने को घर से निकले,
ख्वाईशों को नया जामा पहना
कुछ रास्तों पर हरियाली उगा
मौसम के मिज़ाज़ का लुत्फ़ उठा
ख्वाईशों की ओर चलें
चलो ख्वाईशों को नया आयाम दे…।