मुकद्दर
मुकद्दर की तरिणी
जब
दरिया की लहरों से
टकरा कर
हिचकोले खाते हुए
सरिता के तल में
समाने लगती है,
दिग्भ्रमित,
आशंकित।
पुरूषार्थ
तब
मांझी बन कर
जल-प्लावित
नियति को
तृण-प्रश्रय देकर
आहिस्ते-से
तट तक लाता है
एक जैतवार योद्धा-सा
और
पीठ थपथपा कर
आश्वस्त करता है,
प्रतीति दिलाता है
अपने पराक्रम की,
अपने अस्तित्व की।
भले ही मुकद्दर-ए-हयात
इतराता है,
लुभाता है,
नचाता है,
पर
पौरूषता की दिव्यता
उसे
वैभवता की पराकाष्ठा तक
ले जाने की
निमित्त बनती है।