मुकद्दर से हारा है तू
दामन को आंसुओं से
कयूं भिगोता है तू
कर्मो से नही
मुकद्दर से हारा है तू ।
मुश्किलों के तूफानो से
कयूं डरता है तू
अपने मुकद्दर से
कयूं नही लड़ता है तू ।
बदला है रूख हवाओं ने
कश्ती को कयूं नही चलाता है तू
सागर की उठती लहरों से
क्यूं नही टकराता है तू ।
रिसते हुये जख्मो को
क्यूं नही नमक लगाता है तू
हारी बाजी को पलट कर
सिकन्दर कयूं नही कहलाता है तू ।।
राज विग