मिट रहा प्रकृति श्रृंगार – डी के निवातिया
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ऋतुओं के संग-संग मौसम बदले,
बदल गया धरा पे जीवन आधार,
मानव तेरी विलासिता चाहत में,
उजड़ रहा है नित प्रकृति का श्रृंगार,
दरख्त-बेल, घास-फूंस व् झाड़ियाँ,
धरा से मिट रहा हरियाली आधार !!
खोई है गौरैयाँ की चूँ-चूँ, चीं-चीं,
छछूंदर की भी, खो गयी सीटी,
मेंढक की अब टर्र-टर्र गायब है,
सुनी न कोयल की बोली मीठी,
खग-मृग लुप्त हुआ जाता संसार !
मिट रहा है मधुकर श्रेणी परिवार !!
तितलियाँ जाने कहां मंडराती है,
टिड्ढो की टोली अब न आती है,
भंवरों की गुंजन को पुष्प तरसते
अब न बसंत में फूल ही बरसते
लील गया मानव का अत्याचार !
उजड़ रहा है नित प्रकृति श्रृंगार !!
चहुँ ओर दिखता पानी पानी,
मानस मन करता त्राहि त्राहि,
अपनी ओर भी देख् रे प्राणी,
तेरी करणी तुझको ही भरणी,
खुद ही झेलो अब इसकी मार !
क्यों किया प्रकृति का त्रिस्कार !!
लोलुपता मे मन्त्र मुग्ध है,
ज्ञान चेतना मे तू प्रबुद्दः है,
अज्ञानता से रे मानुष तेरी,
चित्त प्रकृति का क्षुब्द है,
कब तक सहेगी ये तेरी मार !
अब तो कर तू, कुछ विचार !!
खुद को समझ रहा बड़ा दानिश,
क्या देगा गर मांगेगा वारिसः
आने वाले क्षण कि भी सोच,
मिट रही है यह सम्पदा रोज,
मनमानी की होगी सीमा पार !
कभी तो मानगे तू अपनी हार !!
जाग सके तो जाग रे बन्दे,
कम कर ये विध्वंशक धन्धे,
अभी न चेता तो कब चेतेगा
पड़ जायेंगे, आफत के फंदे,
कभी तो सुन मन की पुकार !
कर रही है अंतरात्मा पुकार !!
बाढ़, सूखा, वर्षा, माहमारी,
आएगी बीमारियों की बारी,
बंद कर छेड़छाड़ प्रकृति से,
मारी जायेगी दुनिया सारी,
कोई न सुनेगा यहां तेरी हाहाकार !
प्रकृति लेगी जब अपना प्रतिकार !!
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स्वरचित :- डी के निवातिया