*मिट्टी की वेदना*
लेखक _डॉ अरूण कुमार शास्त्री
विधा _ पद्य, स्वच्छंद कविता
शीर्षक _ मिट्टी की वेदना
मिट्टी से पैदा हुआ मिट्टी में ही समाया।
ये गणित का त्रिकोण मेरी समझ न आया ।
पांच तत्वों से बना जल पृथ्वी अग्नि वायु आकाश।
ऐसी हाड़ मांस की टोकरी का अंहकार कर देता विनाश।
मूल निवासी इस घर का कोई भी पकड़ आज तक नहीं पाया ।
वो तो अजर अमर अविनाशी जा परमतत्व
में समाया।
दर्द सहा बीमार हुआ भूख से बेहाल हुआ रोज़ खाता रोज़ कमाता ।
फिर भी इन्द्रियों द्वारा संचालित मन मोह माया से तृप्त नहीं हो पाता।
मिट्टी से पैदा हुआ मिट्टी में ही समाया।
ये गणित का त्रिकोण मेरी समझ न आया ।
रुपया पैसा जोड़ – जोड़ कर बन बैठा साहुकार।
ऊंची नाक कर घूम रहा है देखो कितना अहंकार ।
कथनी करनी का कोई भी मेल मिला न इसकी ।
सुबह हुई तो सपनों से भरी हुई थी बुद्धि में
अनेक योजनाओं की स्मृति।
लेकिन शारीरिक क्षमताओं से ज्यादा कुछ भी न कर पाया ।
मिट्टी- मिट्टी हो गए सपने और विचार जब अन्त समय था आया।
भजन कीर्तन किया कभी न, न ही प्रभू को ध्याया ।
मानव शरीर में रहने का धर्म न कोई अपनाया ।
मिट्टी से पैदा हुआ मिट्टी में ही समाया।
ये गणित का त्रिकोण मेरी समझ न आया ।
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