“मिट्टी”।
सीमित मेरी सोच थी शायद,
समझता था मिट्टी को बेकार,
मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू से अब,
मैं करने लगा हूं प्यार,
इस मिट्टी ने मुझे अपनाया ऐसे,
की मिला जीवन को आधार,
मुझ जैसे ही सांवली सूरत इसकी,
अब ये मुझे भी रही है संवार,
बिन बोले ही बतियाए मुझसे,
दिखाए संभावनाएं अपार,
दिया अवसर व्यापार का मुझे,
है इस मिट्टी का आभार।
कवि-अंबर श्रीवास्तव।