मिजाज मेरे गांव की….
हो गया तल्ख मिजाज मेरे गांव की।
अब नहीं पुकारती माटी मेरे गांव की॥
अपने नहीं चाहते अब अपनों को
स्वजन छलिया बनके घुम रहे है,
फंसाने की सोच नई-नई तरकीबें
शुभचिंतक बन रोज मिल रहे है,
खुन के रिश्ते पानी हुए मेरे गांव की।
अब नहीं पुकारती माटी मेरे गांव की॥
हृदय की स्नेहिल धारा सुख गई
हर चेहरे पर मक्कारी झलकती है,
न सादगी रही ना वो सरलता है
सभी के मन में अय्यारी दिखती है,
अब मर चुके हैं संस्कार मेरे गांव की।
अब नहीं पुकारती माटी मेरे गांव की॥
पिता-पुत्र और भाई-भाई में कटुता
हर घर में है बिन बात का झगड़ा,
हृदय नहीं है अब साफ किसी का
हर बात में है एक दुसरे से रगड़ा,
हो गया कुत्सित चरित्र मेरे गांव की।
अब नहीं पुकारती माटी मेरे गांव की॥
घोंसारी की न सोंधी भूजा महकती
न मक्के चना की सत्तु ही सनती,
हो गया है एक सा भोजन वर्ष का
पर्व पर विशेष पकवान न है बनती,
हो गया है विषाक्त हवा मेरे गांव की।
अब नहीं पुकारती माटी मेरे गांव की॥
वह फसल-अनाज, खेत- खलिहान
कोयल की कुक और कौए के कांव
बगिया में फलते जामुन और आम,
गौरैयों के घोंसले व पीपल के छांव
हो गए है वधिक सगे मेरे गांव की।
अब नहीं पुकारती माटी मेरे गांव की॥
सारे फैसले अपना पंचायत छोड़
अब जिला न्यायालय में होते है,
मार कर हक बंधु – बांधव का
बेशरम वे चैन का नींद सोते है,
हो गया विनाशक समाज मेरे गांव की।
अब नहीं पुकारती माटी मेरे गांव की॥
******