“मिजाज़-ए-ओश”
टूटी, बिखरी, सिमटी, जुड़ी और उठ खड़ी हुई।
अपनी बुलंद इरादों से हर हार मुहाल करती हूं।
वक्त, नज़ाकत और नज़रिए, चाहें हो जैसे बदले,
पर आज भी मैं सख़्त फैसले, बहाल करती हूं।
जब से तजुर्बों ने है खींची लकीरें दायरात की,
तब से हद से परे न यकीन-ओ-अमाल करती हूं।
करती हूं कोशिशें अक्सर, फिर से मुस्कुराने की,
हाँ कभी बहे आंसुओं पर भी मलाल करती हूं।
ज़रूरी होता है हर सबक,कहती हूं अपने दिल से,
अब बीती बातों पर नहीं कोई सवाल करती हूं।
रखती हूं निग़ाहें, फ़क़त नज़रें चुराने वालों पर,
धूल न झोंके नज़रों में कोई, ये खयाल करती हूं।
नहीं कहीं है शामिल मेरे फितरत में दोगलापन
इसीलिए लिए कायम, फितरत की मिसाल करती हूं।
ज़रूरत नहीं मखमली कपड़े, गहने, लेपन की,
मैं सादगी से अपनी शख्सियत ज़माल करती हूं।
ओसमणी साहू ‘ओश’ रायपुर (छत्तीसगढ़)