माॅं
मातु प्रियताभाष में सद्भाव का संगीत है।
आत्मसत् की निकटता से भरा स्वर औ गीत है।
हृदय-धड़कन से बना, शुभ पालना सद्प्रेम का।
मातु तुझसे उच्च ,जग में नहीं देखा मीत है।
माता तेरा ऋणी यह सचमुच असत् संसार है।
माॅं अमल पोषण की देवी,प्रीतिमय आधार है।
आप बिन सारा जमाना,पत्ता सूखी डाल का।
मातु नहिं तो बाल-जीवन में नहीं परिवार है।
श्वास से श्वासा मिली चुंबन मिला आनंद था।
मातृमय हर रूप में शिशु-ध्यान,परमानंद था।
छिन गया शुभ मातु -साया तभी से मैं दीन बन
रोया समझा, माॅं हृदय में प्रीति सु मकरंद था।
जब तलक माॅं साथ थी, आनंद का आधार था।
मातु शुभ आवाज में अनुपम सु पावन प्यार था।
वह गई,सब खो गया उर रो गया,यादें बचीं।
लग रहा जननी हृदय,सदप्रीति का अवतार था।
स्वार्थ में डूबे हुए सब, माॅं ही बस निष्काम थी।
माता तेरी नेह-बोली,प्रीति का शुभ घाम थी।
मोह यदि थोड़ा तो क्या, पोषण हमेशा प्यार का,
मैंने पाया,आपकी हर श्वास मेरे काम की।
पं बृजेश कुमार नायक