मालूम नहीं
मालूम नहीं कटी पतंग का
दशा न दिशा
कटी कब डोर पता नहीं
भटक रही है जाने कबसे
मालूम नहीं।
वेगशून्य अस्थिर
शून्य में न ओर-छोर
था गुमान की
बंधी हूँ मजबूत
स्तम्भ से।
मालूम नहीं
थी कच्ची डोर
नापना था
दूर तलक आसमान
बंध के भी
मुक्त विचरण
कट गई आखिर
अब न होगा
मेरा अस्तित्व
न होगी ऊंची उड़ान।
-शालिनी मिश्रा तिवारी
( बहराइच,उ०प्र० )