” मायूस धरती “
आंचल में मैंने तुम्हे खिलाया
बारिश का निर्मल जल पिलाया
आशियाना बनाने को दिया स्थान
बरसाया मैंने तुम सब पर दुलार,
फल खाकर मेरे मिटाई भूख
प्राकृतिक छटा से मन विभोर किया
लेकिन नहीं समझा तूं महता मेरी
आज खड़ी मैं पतन की कगार,
क्यों चीर रहा है नर तूं सीना मेरा
क्षिण बना प्रफुल्लित जीवन सारा
धरती मां से बनी मायूस धरती
कराह कर दर्द से मैं भरूं हूंकार,
तन मेरे का कर दिया पोस्टमार्टम
ज़हरीला धुंआ बना प्रदूषण का
तंग होकर मैं इंसाफ मांगू तुझसे
सुनले नर तूं मेरी दर्दनीय पुकार।