माया
” माया ”
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अनिर्वचनीय तेरा साया ,
हे माया ! तू है अलबेली |
तेरा निज स्वरूप बताकर ,
शंकर ने की दूर पहेली ||
तू ही तो “अध्यास” सदा है ,
तू ही निर्मित करती “अज्ञान” |
तेरे ही चक्कर में होता……
ब्रह्म और संसार का ज्ञान ||
हरदम रहे तू शान्त-अनादि ,
नित्य जग को “मिथ्या” बनाती |
भाव-अभाव रूप में रहकर !
आत्म-अनात्म विभेद बताती ||
हे ! श्याम-सलौनी माया तू ,
अज्ञान मनस में जगाती है |
“दीप-जहन” ने जान लिया है !
कि “भ्रम” भी तू ही कराती है ||
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डॉ० प्रदीप कुमार दीप